उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
रमानाथ–इसी फिक्र में तो आपके पास आया हूँ।
रमेश–तुम भी अजीब आदमी हो, अपने बाप से कहते हुए तुम्हें क्यो शर्म आती है? यही न होगा, तुम्हें ताने देंगे, लेकिन इस संकट से तो छूट जाओगे। उनसे सारी बातें साफ़-साफ़ कह दो। ऐसी दुर्घटनाएँ अकसर हो जाया करती हैं। इसमें डरने की क्या बात है। नहीं कहो, मैं चलकर कह दूँ।
रमानाथ–उनसे कहना होता, तो अब तक कभी कह चुका होता। क्या आप कुछ बन्दोबस्त नहीं कर सकते?
रमेश–कर क्यों नहीं सकता; पर करना नहीं चाहता। ऐसे आदमी के साथ मुझे कोई हमदर्दी नहीं हो सकती। तुम जो बात मुझसे कह सकते हो, क्या उनसे नहीं कह सकते? मेरी सलाह मानो। उनसे जाकर कह दो। अगर वह रुपये न देंगे तब मेरे पास आना।
रमा को अब और कुछ कहने का साहस न हुआ। लोग इतनी घनिष्टता होने पर भी इतने कठोर हो सकते हैं। वह यहाँ से उठा; पर उसे कुछ सुझायी न देता था। चौबेया में आकाश से गिरते हुए जल- बिन्दुओं की जो दशा होती है, वही इस समय रमा की हुई। दस कदम तेज़ी से आगे चलता तो फिर कुछ सोचकर रुक जाता और दस-पाँच कदम पीछे लौट जाता। कभी इस गली में घुस जाता, कभी उस गली में।
सहसा उसे एक बात सूझी, क्यों न जालपा को एक पत्र लिखकर अपनी सारी कठिनाइयाँ कह सुनाऊँ। मुँह से तो वह कुछ न कह सकता था; पर कलम से लिखने में उसे कोई मुश्किल मालूम न होती थी। पत्र लिखकर जालपा को दे दूँगा। और बाहर के कमरे में आ बैठूँगा। इससे सरल और क्या हो सकता है? वह भागा हुआ घर आया। और तुरन्त पत्र लिखा।
‘प्रिये, क्या कहूँ किस विपत्ति में फँसा हुआ हूँ। अगर एक घण्टे के अन्दर तीन सौ रुपये का प्रबन्ध न हो गया, तो हाथों में हथकड़ियाँ पड़ जायेगी। मैंने बहुत कोशिश की, किसी से उधार ले लूँ; किन्तु कहीं न मिल सके। अगर तुम अपने दो-एक जेवर दे दो, तो मैं गिरवी रखकर काम चला लूँ। ज्यों ही रुपये आ जायेंगे, छुड़ा दूँगा। अगर मजबूरी न आ पड़ती तो तुम्हें कष्ट न देता। ईश्वर के लिए रुष्ट न होना। मैं बहुत जल्द छुड़ा दूँगा...
अभी यह पत्र समाप्त न हुआ था कि रमेश बाबू मुस्कराते हुए आकर बैठ गये और बोले–कहा उनसे तुमने?
रमा ने सिर झुकाकर कहा–अभी तो मौका नहीं मिला।
रमेश–तो क्या दो-चार दिन में मौका मिलेगा? मैं डरता हूँ कि कहीं आज भी तुम यों ही खाली हाथ न चले जाओ, नहीं तो गजब ही हो जाये !
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