उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
रमानाथ–जब उनसे माँगने का निश्चय कर लिया, तो अब क्या चिन्ता !
रमेश–आज मौका मिले तो जरा रतन के पास चले जाना। उस दिन मैंने कितना जोर देकर कहा था, लेकिन मालूम होता है तुम भूल गये।
रमानाथ–भूल तो नहीं गया, लेकिन उनसे कहते शर्म आती है।
रमेश–अपने बाप से कहते भी शर्म आती है? अगर अपने लोगों में यह संकोच न होता, तो आज हमारी यह दशा क्यों होती।
रमेश बाबू चले गये, तो रमा ने पत्र उठाकर जेब में डाला और उसे जालपा को देने का निश्चय करके घर में गया। जालपा आज किसी महिमा के घर जाने को तैयार थी। थोड़ी देर हुई, बुलावा आया था। उसने अपनी सबसे सुन्दर साड़ी पहनी थी। हाथों में जड़ाऊँ कंगन शोभा दे रहे थे, गले में चन्द्रहार। आईना सामने रक्खे हुए कानों में झूमके पहन रही थी। रमा को देखकर बोली–आज सबेरे कहाँ चले गये थे? हाथ-मुँह तक न धोया। दिन भर तो बाहर रहते ही हो, शाम-सबेरे तो घर पर रहा करो। तुम नहीं रहते, तो घर सूना-सूना लगता है। मैं अभी सोच रही थी, मुझे मैके जाना पड़े, तो मैं जाऊँ या न जाऊँ? मेरा जी तो वहाँ बिल्कुल न लगे।
रमानाथ–तुम तो कहीं जाने को तैयार बैठी हो।
जालपा–सेठानीजी ने बुला भेजा है, दोपहर तक चली जाऊँगी।
रमा की दशा इस समय उस शिकारी की-सी थी, जो हिरनी को अपने शावकों के साथ किलोल करते देखकर तनी हुई बन्दूक कन्धे पर रख लेता है, और वह वात्यल्स और प्रेम की क्रीड़ा देखने में तल्लीन हो जाता है।
उसे अपनी ओर टकटकी लगाये देखकर जालपा ने मुसकराकर कहा–देखो, मुझे नजर न लगा देना। मैं तुम्हारी आँखों से बहुत डरती हूँ।
रमा एक ही उड़ान में वास्तविक संसार से कल्पना और कवित्व के संसार में जा पहुँचा। ऐसे अवसर पर जब जालपा का रोम-रोम आनन्द से नाच रहा है, क्या वहाँ अपना पत्र देकर उसकी सुखद कल्पनाओं को दलित कर देगा? वह कौन हृदयहीन व्याध है, जो चहकती हुई चिड़िया की गरदन पर छुरी चला देगा? वह कौन अरसिक आदमी है, जो किसी प्रभात-कुसुम को तोड़कर पैरों से कुचल डालेगा? रमा इतना हृदयहीन, इतना अरसिक नहीं है। वह जालपा पर इतना बड़ा आघात नहीं कर सकता। उसके सिर कैसी ही विपत्ति क्यों न पड़े जाये, उसकी कितनी ही बदनामी क्यों न हो, उसका जीवन ही क्यों न कुचल दिया जाये; पर वह इतना निष्ठुर नहीं हो सकता। उसने अनुरक्त होकर कहा–नज़र तो न लगाऊँगा, हाँ, हृदय से लगा लूँगा। इसी एक वाक्य में उसकी सारी चिन्ताएँ, सारी बाधाएँ विसर्जित हो गयीं। स्नेह-संकोच की वेदी पर उसने अपने को भेंट कर दिया। इस अपमान के सामने जीवन के और सारे क्लेश तुच्छ थे। इस समय उसकी दशा उस बालक की-सी थी, जो फोड़े पर नश्तर की क्षणिक पीड़ा न सहकर उसके फूटने, नासूर पड़ने, वर्षों खाट पर पड़े रहने और कदाचित् प्राणान्त हो जाने के भय को भी भूल जाता है।
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