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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


रास्ते में वह दोनों तरफ बड़े ध्यान से देखती जाती थी। क्या इतनी जल्द इतनी दूर निकल आये? शायद देर हो जाने के कारण वह भी आज ताँगे ही पर गये हैं, नहीं तो अब तक जरूर मिल गये होते। ताँगे वाले से बोली–क्यों जी, अभी तुमने किसी बाबूजी को ताँगे पर जाते देखा?

ताँगेवाले ने कहा–हाँ माईजी, एक बाबू अभी इधर ही से गये हैं।

जालपा को कुछ ढाँढ़स हुआ, रमा के पहुँचते-पहुँचते वह भी पहुँच जायेगी। कोचवान से बार-बार घोड़ा तेज करने को कहती। जब वह दफ्तर पहुंची, तो ग्यारह बज गये थे। कचहरी में सैकड़ों आदमी इधर-उधर दौड़ रहे थे। किससे पूछे? न जाने वह कहाँ बैठते हैं !

साहसा एक चपरासी दिखलायी दिया। जालपा ने उसे बुलाकर कहा–सुनो जी, ज़रा बाबू रमानाथ को तो बुला लाओ।

चपरासी बोला–उन्हीं को तो बुलाने जा रहा हूँ। बड़े बाबू ने भेजा है। आप क्या उनके घर ही से आयी हैं?

जालपा–हाँ, मैं तो घर ही से आ रही हूँ। अभी दस मिनट हुए वह घर से चले हैं।

चपरासी–यहाँ तो नहीं आये।

जालपा बड़े असमंजस में पड़ी। वह यहाँ भी नहीं आये, रास्ते में भी नहीं मिले, तो फिर गये कहाँ? उसका दिल बासों उछलने लगा। आँखें भर-भर आने लगीं। वहाँ बड़े बाबू के सिवा वह और किसी को न जानती थी। उनसे बोलने का अवसर कभी न पड़ा था, पर इस समय उसका संकोच गायब हो गया। भय के सामने मन के और सभी भाव दब जाते हैं। चपरासी से बोली–ज़रा बड़े बाबू से कह दो...नहीं, चलो मैं ही चलती हूँ। बड़े बाबू से कुछ बातें करनी हैं।

जालपा का ठाठ-बाट और रंग-ढंग देखकर चपरासी रोब में आ गया, उलटे पाँव बड़े बाबू के कमरे की ओर चला। जालपा उसके पीछे-पीछे हो ली। बड़े बाबू खबर पाते ही तुरन्त बाहर निकल आये।

जालपा ने कदम आगे बढ़ाकर कहा–क्षमा कीजिए बाबू साहब, आपको कष्ट हुआ। वह पन्द्रह-बीस मिनट हुए घर से चले, क्या अभी तक यहाँ नहीं आये?

रमेश–अच्छा आप मिसेज रमानाथ हैं। अभी तो यहाँ नहीं आये। मगर दफ्तर के वक्त सैर-सपाटे करने की तो उसकी आदत न थी।

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