उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
रमा–बहुत ठीक कहते हो दादा। बड़े कमहिम्मत हैं। जब से विवाह हुआ, अपनी लड़की तक को तो बुलाया नहीं।
देवी–समझ गया भैया, यही दुनिया का दस्तूर है। बेटे के लिए कहो चोरी करें, भीख माँगें बेटी के लिए घर में कुछ है ही नहीं।
तीन दिन से रमा को नींद न आयी थी। दिन भर रुपये के लिए मारा-मारा फिरता, रात भर चिन्ता में पड़ा रहता। इस वक्त बातें करते-करते उसे नींद आ गयी। गरदन झुकाकर झपकी लेने लगा। देवीदीन ने तुरन्त अपनी गठरी खोली, उसमें से एक दरी निकाली, और तख्त पर बिछाकर बोला–तुम यहाँ आकर लेट रहो भैया, मैं तुम्हारी जगह पर बैठ जाता हूँ।
रमा लेट रहा। देवीदीन बार-बार उसे स्नेह-भरी आँखों से देखता था, मानो उसका पुत्र कहीं परदेश से लौटा हो।
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जब रमा कोठे से धम-धम नीचे उतर रहा था, उस वक्त जालपा को इसकी ज़रा भी शंका न हुई कि वह घर से भागा जा रहा है। पत्र तो उसने पढ़ ही लिया था। जी ऐसा झुँझला रहा था कि चलकर रमा को खूब खरी-खरी सुनाऊँ। मुझसे यह छल-कपट ! एक ही क्षण में उसके भाव बदल गये। कहीं ऐसा तो नहीं हुआ है, सरकारी रुपये खर्च कर डाले हों। यही बात है, रुपये उठा लाये थे। यह सोचकर उसे फिर क्रोध आया–यह मुझसे इतना परदा क्यों करते हैं? क्या मुझसे बढ़-बढ़कर बातें करते थे? क्या मैं इतना भी नहीं जानती कि संसार में अमीर-गरीब दोनों होते हैं? क्या सभी स्त्रियां गहनों से लदी रहती हैं? गहने न पहनना क्या कोई पाप है? जब और जरूरी कामों से रुपये बचते हैं, तो गहने भी बन जाते हैं। पेट और तन काटकर, चोरी या बेईमानी करके तो गहने नहीं पहने जाते ! क्या उन्होंने मुझे ऐसी गयी-गुजरी समझ लिया।
उसने सोचा, रमा अपने कमरे में होगा, चलकर पूछूँ, कौन से गहने चाहते हैं। परिस्थिति की भयंकरता का अनुमान करके क्रोध की जगह उसके मन में भय का संचार हुआ। वह बड़ी तेजी से नीचे उतरी। उसे विश्वास था, वह नीचे बैठे इंतजार कर रहे होंगे। कमरे में आयी, तो उनका पता न था। साइकिल रक्खी हुई थी, तुरन्त दरवाजे से झाँका। सड़क पर भी नहीं। कहाँ चले गये? लड़के दोनों स्कूल गए थे, किसको भेजे कि जाकर उन्हें बुला लाये। उसके हृदय में एक अज्ञात संशय अंकुरित हुआ। फौरन ऊपर गयी, गले का हार और हाथ का कंगन उतारकर रूमाल में बाँधा, फिर नीचे उतरी, सड़क पर आकर एक ताँगा लिया, और कोचवान से बोली–चुँगी कचहरी चलो। वह पछता रही थी कि मैं इतनी देर बैठी क्यों रही। क्यों न गहने उतार कर तुरन्त दे दिये।
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