उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
जालपा ने हार दिखाकर कहा–आप इसे ले सकते हैं?
सराफ ने हार को इधर-उधर देखकर कहा–मुझे चार पैसे की गुंजाइश होगी, तो क्यों न ले लूँगा। माल चोखा नहीं है।
जालपा–तुम्हें लेना है, इसलिए माल चोखा नहीं है, बेचना होता, तो चोखा होता। कितने में लोगे?
सराफ–आप ही कह दीजिए।
सराफ ने साढ़े तीन सौ दाम लगाये, और बढ़ते-बढ़ते चार सौ तक पहुँचा। जालपा को देर हो रही थी, रुपये लिए और चल खड़ी हुई। जिस हार को उसने इतने चाव से खरीदा था, जिसकी लालसा उसे बाल्यकाल ही में उत्पन्न हो गयी थी, उसे आज आधे दामों बेचकर उसे जरा भी दुःख नहीं हुआ; बल्कि गर्वमय हर्ष का अनुभव हो रहा था। जिस वक्त रमा को मालूम होगा कि उसने रुपये दे दिये हैं, उन्हें कितना आनन्द होगा। कहीं दफ्तर गये हों तो बड़ा मजा हो। यह सोचती हुई वह फिर दफ्तर पहुँची। रमेश बाबू उसे देखते हुए बोले–क्या हुआ घर पर मिले?
जालपा–क्या अभी तक यहाँ नहीं आये? घर तो नहीं गये। यह कहते हुए उसने नोटों का पुलिन्दा रमेश बाबू की तरफ बढ़ा दिया।
रमेश बाबू नोटों को गिनकर बोले–ठीक है; मगर वह अब तक कहाँ हैं। अगर न आना था, तो एक पत्र लिख देते। मैं तो बड़े संकट में पड़ा हुआ था। तुम बड़े वक्त से आ गयीं। इस वक्त तुम्हारी सूझ-बूझ देखकर जी खुश हो गया। यही सच्ची देवियों का धर्म है।
जालपा फिर तांगे पर बैठकर घर चली तो उसे मालूम हो रहा था मैं कुछ ऊँची हो गयी हूँ। शरीर में एक विचित्र स्फूर्ति दौड़ रही थी। उसे विश्वास था, वह आकर चिन्तित बैठे होंगे। वह जाकर पहले उन्हें खूब आड़े हाँथों लेगी, और खूब लज्जित करने के बाद यह हाल कहेगी; लेकिन जब घर में पहुँची तो रमानाथ का कहीं पता न था।
जागेश्वरी ने पूँछा–कहाँ चली गयी थीं इस धूप में?
जालपा–एक काम से चली गयी थी। आज उन्होंने भोजन भी नहीं किया, न जाने कहाँ चले गये।
जागेश्वरी–दफ्तर गये होंगे।
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