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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


जागेश्वरी–मुझसे अब कुछ न खाया जायेगा। ऐसा मनमौजी लड़का है कि कुछ कहा, न सुना, न जाने कहाँ जाकर बैठ रहा। कम-से-कम कहला तो देता कि मैं इस वक्त न आऊँगा।

जागेश्वरी फिर लेट रही, मगर जालपा उसी तरह बैठी रही। यहाँ तक कि सारी रात गुजर गयी–पहाड़-सी रात जिसका एक-एक पल एक-एक वर्ष के समान कट रहा था।

[२३]

एक सप्ताह हो गया, रमा का कहीं पता नहीं। कोई कुछ कहता, कोई कुछ। बेचारे रमेश बाबू दिन में कई-कई बार आकर पूछ जाते हैं। तरह-तरह के अनुमान हो रहे हैं। केवल इतना ही पता चलता है कि रमानाथ ग्यारह बजे रेलवे स्टेशन की ओर गये थे। मुंशी दयानाथ का खयाल है, यद्यपि वे इसे स्पष्ट रूप से प्रकट नहीं करते कि रमा ने आत्महत्या कर ली। ऐसी दशा में यही होता है। इसकी कई मिसालें उन्होंने खुद आँखों से देखी हैं। सास और ससुर दोनों ही जालपा पर सारा इल्जाम थोप रहे हैं। साफ-साफ कह रहे हैं कि इसी के कारण उसके प्राण गये। इसने उसका नाकों दम कर दिया। पूछो, थोड़ी-सी तो आपकी आमदनी, फिर तुम्हें रोज सैर-सपाटे और दावत-तवाजे की क्यों सूझती थी। जालपा पर किसी को दया नहीं आती। कोई उसके आँसू नहीं पोंछता। केवल रमेश बाबू उसकी तत्परता और सद्बुद्धि की प्रशंसा करते हैं; लेकिन मुंशी दयानाथ की आँखों में उस कृत्य का कुछ मूल्य नहीं। आग लगाकर पानी लेकर दौड़ने से कोई निर्दोष नहीं हो जाता।

एक दिन दयानाथ वाचनालय से लौटे, तो मुँह लटका हुआ था। एक तो उनकी सूरत यों ही मुहर्रमी थी, उस पर मुँह लटका लेते थे तो कोई बच्चा भी कह सकता था कि इनका मिजाज बिगड़ा हुआ है।

जागेश्वरी ने पूछा–क्या है, किसी से कहीं बहस हो गयी क्या?

दयानाथ–नहीं जी, इन तकाजों के मारे हैरान हो गया। जिधर जाओ, उधर लोग नोचने दौड़ते हैं, न जाने कितना कर्ज ले रक्खा है। आज तो मैंने साफ कह दिया, मैं कुछ नहीं जानता। मैं किसी का देनदार नहीं हूँ। जाकर मेम साहब से माँगो।

इसी वक्त जालपा आ पड़ी। ये शब्द उसके कानों में पड़ गये। इन सात दिनों में उसकी सूरत ऐसी बदल गयी थी कि पहचानी न जाती थी। रोते-रोते आँखें सूज आयी थीं। ससुर के ये कठोर शब्द सुनकर तिलमिला उठी, बोली–जी हाँ। आप उन्हें सीधे मेरे पास भेज दीजिए, मैं उन्हें या तो समझा दूँगी, या उनके दाम चुका दूँगी।

दयाराम ने तीखे होकर कहा–क्या दे दोगी तुम, हजारों का हिसाब है, सात सौ तो एक ही सर्राफ के हैं। अभी कै पैसे दिये हैं तुमने?

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