उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
दीनदयाल–यह बात क्या हुई, सुनते हैं कुछ कर्ज़ हो गया था, कोई कहता है, सरकारी रकम खा गये थे।
जालपा–जिसने आपसे यह कहा, उसने सरासर झूठ कहा।
दीनदयाल–तो फिर क्यों चले गये?
जालपा–यह मैं बिलकुल नहीं जानती। मुझे बार-बार खुद यही शंका होती है।
दीनदयाल–लाला दयानाथ से तो झगड़ा नहीं हुआ?
जालपा–लालाजी के सामने तो वह सिर तक नहीं उठाते, पान तक नहीं खाते, भला झगड़ा क्या करेंगे। उन्हें घूमने का शौक था। सोचा होगा–यों तो कोई जाने न देगा, चलो भाग चलें।
दीनदयाल–शायद ऐसा ही हो। कुछ लोगों को इधर-उधर भटकने की सनक होती है। तुम्हें यहाँ जो कुछ तकलीफ हो, मुझसे साफ-साफ कह दो। खर्च के लिए कुछ भेज दिया करूँ?
जालपा ने गर्व से कहा–मुझे कोई तकलीफ नहीं है दादाजी। आपकी दया से किसी चीज की कमी नहीं है।
दयानाथ और जागेश्वरी, दोनों ने जालपा को समझाया; पर वह जाने पर राजी न हुई। तब दयानाथ झुँझला कर बोले-यहाँ दिन-भर पड़े-पड़े रोने से तो अच्छा है !
जालपा–क्या वह कोई दूसरी दुनिया है, या मैं वहाँ जाकर कुछ और हो जाऊँगी? और फिर रोने से क्यों डरूं? जब हँसना था, तब हँसती थी, जब रोना है तो रोऊँगी। वह काले कोसों चले गये हों; पर मुझे तो हरदम यहीं बैठे दिखायी देते हैं। यहाँ वे स्वयं नहीं हैं, पर घर की एक-एक चीज में बसे हुए हैं। यहाँ से जाकर तो मैं निराशा से पागल हो जाऊँगी।
दीनदयाल समझ गये यह अभिमानिनी अपनी टेक न छोड़ेगी। उठकर बाहर चले गये। सन्ध्या समय चलते वक्त उन्होंने पचास रुपये का एक नोट जालपा की तरफ बढ़ाकर कहा–इसे रख लो, शायद कोई जरूरत पड़े।
जालपा ने सिर हिलाकर कहा–मुझे इसकी बिलकुल जरूरत नहीं है दादाजी, हाँ इतना चाहती हूँ कि आप मुझे आशीर्वाद दें। सम्भव है, आपके आशीर्वाद से मेरा कल्याण हो।
दीनदयाल की आँखों में आँसू भर आये, नोट वहीं चारपाई पर रखकर बाहर चले आये।
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