उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
क्वार का महीना लग चुका था। मेघ के जल-शून्य टुकड़े कभी-कभी आकाश में दौड़ते नजर आ जाते थे। जालपा छत पर लेटी हुई उन मेघखण्डों की किलोलें देखा करती। चिन्ता-व्यथित प्राणियों के लिए इससे अधिक मनोरंजन की और वस्तु ही कौन है। बादल के टुकड़े भाँति-भाँति के रंग बदलते, भाँति-भाँति के रूप भरते, कभी आपस में प्रेम से मिल जाते, कभी रूठकर अलग-अलग हो जाते, कभी दौड़ने लगते, कभी ठिठक जाते। जालपा सोचती, रमानाथ भी कहीं बैठे यही मेघ-क्रीड़ा देखते होंगे। इस कल्पना में उसे विचित्र आनन्द मिलता। किसी माली को अपने लगाये पौधों से, किसी बालक को अपने बनाये हुए घरौंदों से जितनी आत्मीयता होती है, कुछ वैसा ही अनुराग उसे उन आकाशगामी जीवों से होता था। विपत्ति में हमारा मन अन्तर्मुखी हो जाता है। जालपा को अब यही शंका होती थी कि ईश्वर ने मेरे पापों का यह दण्ड दिया है। आखिर रमानाथ दूसरों का गला दबाकर ही तो रोज रुपये लाते थे। कोई खुशी से तो न दे देता था। यह रुपये देखकर वह कितनी खुश होती थी ! इन्हीं रुपयों से तो नित्य शौक-श्रृंगार की चीजें आती रहती थीं। उन वस्तुओं को देखकर अब उसका जी जलता था। यही सारे दुःखों का मूल हैं। इन्हीं के लिए तो उसके पति को विदेश जाना पड़ा। वे चीजें उसकी आँखों में अब काँटों की तरह गड़ती थीं, उसके हृदय में शूल की तरह चुभती थीं।
आखिर एक दिन उसने इन सब चीजों को जमा किया–मखमली स्लीपर, रेशमी मोजे, तरह-तरह की बेलें, फीते, पिन, कँघियाँ, आईने, कोई कहाँ तक गिनाये। अच्छा खासा एक ढेर हो गया। वह इस ढेर को गंगा में डुबो देगी, और अब से एक नये जीवन का सूत्रपात करेगी। इन्हीं वस्तुओं के पीछे, आज उसकी यह गति हो रही है। आज वह इस मायाजाल को नष्ट कर डालेगी। उनमें कितनी ही चीजें तो ऐसी सुन्दर थीं कि उन्हें फेंकते मोह आता था; मगर ग्लानि की उस प्रचण्ड ज्वाला को पानी के ये छींटे क्या बुझाते। आधी रात तक वह इन चीजों को उठा-उठाकर अलग रखती रही, मानो किसी यात्रा की तैयारी कर रही हो। हाँ, यह वास्तव में यात्रा ही थी–अँधेरे से उजाले की, मिथ्या से सत्य की। मन में सोच रही थी, अब यदि ईश्वर की दया हुई और वह फिर लौटकर घर आये, तो वह इस तरह रहेगी कि थोड़े-से-थोड़े में निर्वाह हो जाये। एक पैसा भी व्यर्थ न खर्च करेगी। अपनी मजदूरी के ऊपर एक कौड़ी भी घर न आने देगी। आज से उसके नये जीवन का आरम्भ होगा।
ज्यों ही चार बजे, सड़क पर लोगों के आने-जाने की आहट मिलने लगी, जालपा ने बेग उठा लिया और गंगा-स्नान करने चली। बेग बहुत भारी था, हाथ में उसे लटकाकर दस कदम भी चलना कठिन हो गया। बार-बार हाथ बदलती थी। यह भय भी लगा हुआ था कि कोई देख न ले। बोझ लेकर चलने का उसे कभी अवसर न पड़ा था। इक्के वाले पुकारते थे; पर वह उधर कान न देती थी। यहाँ तक कि हाथ बेकाम हो गये, तो उसने बेग को पीठ पर रख लिया और कदम बढ़ाकर चलने लगी। लम्बा घूँघट निकाल लिया था कि कोई पहचान न सके।
वह घाट के समीप पहुँची, तो प्रकाश हो गया था। सहसा उसने रतन को अपनी मोटर पर आते देखा। उसने चाहा, सिर झुकाकर मुँह छिपा ले; पर रतन ने दूर ही से पहचान लिया, मोटर रोककर बोली–कहाँ जा रही हो बहन, यह पीठ पर बेग कैसा है?
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