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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


जालपा ने घूँघट हटा लिया और निःशंक होकर बोली–गंगा-स्नान करने जा रही हूँ।

रतन–मैं तो स्नान करके लौट आयी; लेकिन चलो तुम्हारे साथ चलती हूँ। तुम्हें घर पहुँचाकर लौट जाऊँगी। बेग रख दो।

जालपा–नहीं-नहीं, यह भारी नहीं है। तुम जाओ, तुम्हें देर होगी। मैं चली जाऊँगी। मगर रतन ने न माना, कार से उतरकर उसके हाथ से बेग ले ही लिया और कार में रखती हुई बोली–क्या भरा है तुमने इसमें, बहुत भारी है। खोलकर देखूँ?

जालपा–इसमें तुम्हारे देखने लायक कोई चीज नहीं है।
बेग में ताला न लगा था। रतन ने खोलकर देखा, तो विस्मित होकर बोली–इन चीजों को कहाँ लिये जाती हो?

जालपा ने कार में बैठते हुए कहा–इन्हें गंगा में बहा दूँगी।

रतन ने और भी विस्मय में पड़कर कहा–गंगा में ! कुछ पागल तो नहीं हो गयी हो। चलो, घर लौट चलो। बेग रखकर फिर आ जाना।

जालपा ने दृढ़ता से कहा–नहीं रतन, मैं इन चीजों को डुबाकर ही जाऊँगी।

रतन–आखिर क्यों?

जालपा–पहले कार को बढ़ाओ, फिर बताऊँ।

रतन–नहीं, पहले बता दो।

जालपा–नहीं यह न होगा। पहले कार को बढ़ाओ।

रतन ने हारकर कार को बढ़ाया और बोली–अच्छा अब तो बताओगी?

जालपा ने उलाहने के भाव से कहा–इतनी बात तो तुम्हें खुद ही समझ लेनी चाहिए थी। मुझसे क्या पूछती हो। अब वे चीजें मेरे किस काम की हैं। इन्हें देख-देखकर मुझे दुःख होता है। जब देखने वाला ही न रहा, तो इन्हें रखकर क्या करूँ?

रतन ने एक लम्बी साँस खींची और जालपा का हाथ पकड़कर काँपते हुए स्वर में बोली–बाबूजी के साथ तुम यह बड़ा अन्याय कर रही हो बहन। वे कितनी उमंग से इन्हें लाये होंगे। तुम्हारे अंगों पर इनकी शोभा देखकर कितना प्रसन्न हुए होंगे। एक-एक चीज उनके प्रेम की एक-एक स्मृति है। उन्हें गंगा में बहाकर तुम उस प्रेम का घोर अनादर कर रही हो।

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