उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
रमा ने लज्जित होकर कहा–कुछ ऐसी बात थी, दादा। वह तो गहनों की बहुत इच्छुक न थी; लेकिन पा जाती थी तो प्रसन्न हो जाती थी, और मैं प्रेम की तरंग में आगा-पीछा कुछ न सोचता था।
देवीदीन के मुँह से मानो आप-ही-आप निकल आया–सरकारी रकम तो नहीं उड़ा दी?
रमा को रोमांच हो आया। छाती धक-से हो गयी। वह सरकारी रकम की बात उससे छिपाना चाहता था। देवीदीन के इस प्रश्न ने मानो उस पर छापा मार दिया। वह कुशल सैनिक की भाँति अपनी सेना को घाटियों से, जासूसों की आँख बचाकर निकाल ले जाना चाहता था; पर इस छापे ने उसकी सेना को अस्त-व्यस्त कर दिया। उसके चेहरे का रंग उड़ गया। वह एकाएक कुछ निश्चय न कर सका कि इसका क्या जवाब दूँ।
देवीदीन ने उसके मन का भाव भाँप कर कहा–प्रेम बड़ा बेढ़ब होता है भैया। बड़े-बड़े चूक जाते हैं, तुम तो अभी लड़के हो। ग़बन के हज़ारों मुकदमें हर साल होते हैं। तहकीकात की जाय, तो सबका कारण एक ही होगा–गहना। दस-बीस वारदात तो मैं आँखों देख चुका हूँ। यह रोग ही ऐसा है। औरत मुँह से तो यही कहे जाती है कि यह क्यों लाये, रुपये कहाँ से आवेंगे; लेकिन उनका मन आनन्द से नाचने लगता है। यहीं एक डाक-बाबू रहते थे। बेचारे ने छुरी से गला काट लिया। एक दूसरे मियाँ साहब को मैं जानता हूँ, जिनको पाँच साल की सजा हो गयी, जेहल में मर गये। एक तीसरे पंडितजी को जानता हूँ, जिन्होंने अफीम खाकर जान दे दी। बुरा रोग है। दूसरों को क्या कहूँ, मैं ही तीन साल की सजा काट चुका हूँ। जवानी की बात है, जब इस बुढ़िया पर जोबन था। ताकती थी तो मानो कलेजे पर तीर चला देती थी। मैं डाकिया था। मनीऑर्डर तक़सीम किया करता था। यह कानों के झुमकों के लिए कान खा रही थी। कहती थी, सोने ही के लूँगी। इसका बाप चौधरी था। मेवे की दूकान थी। मिजाज बढ़ा हुआ था। मुझ पर प्रेम का नसा छाया हुआ था। अपनी आमदनी की डींगें मारा करता था। कभी फूलों के हार लाता, कभी मिठाई, कभी अतर-फुलेल। शहर का हलक़ा था। जमाना अच्छा था। दूकानदारों से जो चीज माँग लेता, मिल जाती थी। आखिर मैंने एक मनीऑर्डर पर झूठे दस्तख़त बनाकर रुपये उड़ा लिये। कुल तीस रुपये थे। झुमके लाकर इसे दिये। इतनी खुश हुई, इतनी खुश हुई, कि कुछ न पूछो; लेकिन एक ही महीने में चोरी पकड़ ली गयी। तीन साल की सजा़ हो गयी। सजा काटकर निकला, तो यहाँ भाग आया। फिर कभी घर नहीं गया। यह मुँह कैसे दिखाता। हाँ, घर पत्र भेज दिया। बुढ़िया खबर पाते ही चली आयी। यह सबकुछ हुआ; मगर गहनों से उसका पेट नहीं भरा। जब देखो, कुछ-न-कुछ बनता ही रहता है। एक चीज आज बनवायी, कल उसी को तुड़वाकर कोई दूसरी चीज बनवायी। यही तार चला जाता है। एक सोनार मिल गया है, मजूरी में साग-भाजी ले जाता है। मेरी तो सलाह है, घर एक खत लिख दो; लेकिन पुलिस तो तुम्हारी टोह में होगी। कहीं पता मिल गया, तो काम बिगड़ जाएगा। मैं न किसी से एक खत लिखाकर भेज दूँ?
रमा ने आग्रहपूर्वक कहा–नहीं दादा ! दया करो। अनर्थ हो जायगा। पुलिस से ज्यादा तो मुझे घर वालों का भय है।
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