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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


रमा ने इस भाव से कहा, मानो हैं, पर न होने के बराबर हैं–हाँ, हैं तो !

‘कोई चिट्ठी-चपाती आयी थी?’

‘ना !’

‘और न तुमने लिखी? अरे ! तीन महीने से कोई चिट्ठी ही नहीं भेजी? घबड़ाते न होंगे लोग?’

‘जब तक यहाँ कोई ठिकाना न लग जाये, क्या पत्र लिखूँ।’

‘अरे भले आदमी, इतना तो लिख दो कि मैं यहाँ कुशल से हूँ। घर से भाग आये थे; उन लोगों को कितनी चिन्ता हो रही होगी ! माँ-बाप तो हैं न?’

‘हाँ, हैं तो।’

देवीदीन ने गिड़गिड़ाकर कहा–तो भैया, आज ही चिट्ठी डाल दो, मेरी बात मानो।
 
रमा ने अब तक अपना हाल छिपाया था। उसके मन में कितनी ही बार इच्छा हुई कि देवीदीन से कह दूँ; पर बात होंठों तक आकर रुक जाती थी। वह देवीदीन के मुँह से आलोचना सुनना चाहता था। वह जानना चाहता था कि यह क्या सलाह देता है। इस समय देवीदीन के सद्भाव ने उसे पराभूत कर दिया। बोला–मैं घर से भाग आया हूँ, दादा।

देवीदीन ने मूछों में मुसकराकर कह–यह तो मैं जानता हूँ, क्या बाप से लड़ाई हो गयी?

‘‘नहीं !’

‘माँ ने कुछ कहा होगा?’
 
‘यह भी नहीं !’

‘तो फिर घरवाली से ठन गयी होगी। वह कहती होगी, मैं अलग रहूँगी, तुम कहते होगे मैं अपने माँ-बाप से अलग न रहूँगा। या गहने के लिए जिद करती होगी। नाक में दम कर दिया होगा। क्यों?’

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