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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


तीनों कुछ देर तक मौन बैठे रहे। दयानाथ ने अपना फैसला सुना दिया। जागेश्वरी और रमा को यह फैसला मंजूर न था। इसलिए अब इस गुत्थी को सुलझाने का भार उन्हीं दोनों पर था। जागेश्वरी ने भी एक तरह से निश्चय कर लिया था। दयानाथ को झख मारकर अपना नियम तोड़ना पड़ेगा। यह कहाँ की नीति है कि हमारे ऊपर संकट पड़ा हुआ हो और हम अपने नियमों का राग अलापे जायँ? रमानाथ बुरी तरह फँसा था। वह खूब जानता था कि पिता ने जो काम नहीं किया, वह आज न करेंगे। उन्हें जालपा से गहनें माँगने में कोई संकोच न होगा और यही वह न चाहता था। वह पछता रहा था कि मैंने क्यों जालपा से डींगे मारीं। अब अपने मुँह की लाली रखने का सारा भार उसी पर था। जालपा का अनुपम छवि ने पहले ही दिन उस पर मोहिनी डाल दी थी। वह अपने सौभाग्य पर फूला न समाता था। क्या यह घर ऐसी अनन्य सुन्दरी के योग्य था? जालपा के पिता पाँच रुपये के नौकर थे; पर जालपा ने कभी अपने घर पर झाड़ू न लगायी थी। कभी अपनी धोती न छाँटी थी। अपना बिछावन न विछाया था। यहाँ तक की अपनी धोती की खोंच तक न सी थी। दयानाथ पचास रुपया पाते थे; पर यहाँ केवल चौंका बासन करने के लिए महरी थी। बाकी सारा काम अपने ही हाथों करना पड़ता था। जालपा शहर और देहात का फर्क क्या जाने। शहर में रहने का उसे कभी अवसर ही न पड़ा था। वह कई बार पति और सास से साश्चर्य पूछ चुकी थी, क्या यहाँ कोई नौकर नहीं है? जालपा  के घर दूध-दही-घी की कमी नहीं थी। यहाँ बच्चों को भी मयस्सर न था। इन सारे अभावों की पूर्ति के लिए रमानाथ के पास मीठी-मीठी बड़ी-बड़ी बातों के सिवा और क्या था। घर का किराया पाँच रुपया था, रमानाथ ने पन्द्रह बतलाये थे। लड़कों की शिक्षा का खर्च मुश्किल से दस रुपये था, रमानाथ ने चालीस बताये थे। उस समय उसे इसकी जरा भी शंका न थी, कि एक दिन सारा भण्डा फूट जायगा। मिथ्या दूरदर्शी नहीं होता; लेकिन वह दिन जल्दी आयगा, यह कौन जानता था। अगर उसने ये डींगे न मारी होतीं, तो जागेश्वरी की तरह वह भी सारा भार दयानाथ पर छोड़कर निश्चिन्त हो जाता; इस वक्त वह अपने बनाये हुए जाल में फँस गया था। कैसे निकले !

उसने कितने ही उपाय सोचे; लेकिन कोई ऐसा न था, जो आगे चलकर उसे उलझनों में न डाल देता, दलदल में न फँसा देता। एकाएक उसे एक चाल सूझी। उसका दिल उछल पड़ा; पर इस बात को वह मुँह तक न ला सका। ओह ! कितनी नीचता है ! कितना कपट, कितनी निर्दयता ! अपनी प्रेयसी के साथ ऐसी धूर्तता उसके मन ने उसे धिक्कारा अगर इस वक्त उसे कोई एक हजार दे देता, तो वह उसका उम्र भर के लिए गुलाम हो जाता।

दयानाथ ने पूछा–कोई बात सूझी?

‘मुझे तो कुछ नहीं सूझता।’

‘कोई उपाय सोचना ही पड़ेगा।’

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