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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


दयानाथ–हमने तो दीनदयाल से यह भी कहा था कि हम लखपती हैं।

रमानाथ–तो आपने यही कब कहा था कि हम उधार गहने लाये हैं और दो-चार दिन में लौटा देंगे। आखिर यह सारा स्वाँग अपनी धाक बैठाने के लिए ही किया था या कुछ और?

दयानाथ–तो फिर किसी दूसरे बहाने से माँगना पड़ेगा। बिना माँगे काम नहीं चल सकता। कल या तो रुपये देने पड़ेंगे, या गहने लौटाने पड़ेंगे। और कोई राह नहीं।

रमानाथ ने कोई जवाब न दिया। जागेश्वरी बोली–और कौन सा बहाना किया जायगा? अगर कहा जाय, किसी को मँगनी देना है, तो शायद वह देगी नहीं। देगी भी तो दो-चार दिन में लौटायेंगे कैसे?

दयानाथ को एक उपाय सूझा। बोले–अगर उन गहनों के बदले मुलम्मे के गहने दे दिये जायें? मगर तुरन्त ही उन्हें ज्ञात हो गया कि लचर बात है, खुद ही उसका विरोध करते हुए कहा–हाँ, बाद को जब मुलम्मा उड़ जायेगा तो फिर लज्जित होना पड़ेगा। अक्ल कुछ काम नहीं करती। मुझे तो यही सूझता है, यह सारी स्थिति उसे समझा दी जाये। जरा देर के लिए उसे दुःख तो जरूर होगा; लेकिन आगे के वास्ते रास्ता साफ हो जायेगा।

सम्भव था, जैसा दयानाथ का विचार था, कि जालपा रो-धोकर शान्त हो जायेगी; पर रमा की इससे किरकिरी होती थी। फिर वह मुँह न दिखा सकेगा। जब वह उससे कहेगी, तुम्हारी जमींदारी क्या हुई? बैंक के रुपये क्या हुए तो उसे क्या जवाब देगा? विरक्त भाव से बोला–नहीं टाल सकते? आप देना चाहें तो इतने दिनों में हजार-बारह सौ रुपये बड़ी आसानी से दे सकते हैं।

दयानाथ ने पूछा–कैसे?

रमानाथ–उसी तरह जैसे आपके भाई करते हैं !

दयानाथ–वह मुझसे नहीं हो सकता।

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