उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
‘गुरु-दक्षिणा भी मुझी को देनी पड़ेगी। मैंने तुम्हें चार हरफ़ अँग्रेजी पढ़ा दिये, तुम्हारा इससे कोई उपकार न होगा। तुमने मुझे जो पाठ पढ़ाये हैं, उन्हें मैं उम्र भर नहीं भूल सकता। मुँह पर बड़ाई करना खुशामद है; लेकिन दादा, माता-पिता के बाद जितना प्रेम मुझे तुमसे है, उतना और किसी से नहीं। तुमने ऐसे गाढ़े समय मेरी बाँह पकड़ी, जब मैं बीच धारा में बहा जा रहा था। ईश्वर ही जाने, अब तक मेरी क्या गति हुई होती, किस घाट लगा होता !’
देवीदीन ने चुहल से कहा–और जो कहीं तुम्हारे दादा ने मुझे घर में न घुसने दिया तो?
रमा ने हँसकर कहा–दादा तुम्हें अपना बड़ा भाई समझेंगे, तुम्हारी इतनी खातिर करेंगे कि तुम ऊब जाओगे। जालपा तुम्हारे चरण धो-धो पियेगी, तुम्हारी इतनी सेवा करेगी कि जवान हो जाओगे।
देवीदीन ने हँसकर कहा–तब तो बुढ़िया डाह के मारे जल मरेगी। मानेगी नहीं, नहीं तो मेरा जी चाहता है कि हम दोनों यहाँ से अपना डेरा-डंडा लेकर चलते और वहीं अपनी सिरकी तानते। तुम लोगों के साथ जिन्दगी के बाकी दिन आराम से कट जाते; मगर इस चुड़ैल से कलकत्ता न छोड़ा जायगा। तो बात पक्की हो गयी न?
‘हाँ, पक्की ही है।’
‘दुकान खुले तो चलें, कपड़े लावें। आज ही सिलने को दे दें।’
देवीदीन के चले जाने के बाद रमा बड़ी देर तक आनन्द-कल्पनाओं में मग्न बैठा रहा। जिन भावनाओं को उसने कभी मन में आश्रय न दिया था, जिनकी गहराई और विस्तार और उद्वेग से वह इतना भयभीत था कि उनमें फिसल कर डूब जाने के भय से चंचल मन को उधर भटकने भी न देता था, उसी अथाह और अछोर कल्पना-सागर में वह आज स्वच्छन्द रूप से क्रीड़ा करने लगा। उसे अब एक नौका मिल गयी थी। वह त्रिवेणी के सैर, वह अल्फ्रेड पार्क की बहार, वह खुसरो बाग का आनन्द, वह मित्रों के जलसे, सब याद आ-आकर हृदय को गुदगुदाने लगे। रमेश उसे देखते ही गले लिपट जायेंगे। मित्रगण पूछेंगे, कहाँ गये थे यार? खूब सैर की? रतन उसकी खबर पाते ही दौड़ी आयेगी और पूछेगी–तुम कहाँ ठहरे थे बाबूजी? मैंने सारा कलकत्ता छान मारा। फिर जालपा की मान-प्रतिमा सामने आ खड़ी हुई।
सहसा देवीदीन ने आकर कहा–भैया, दस बज गये, चलो बाजार होते आवें। रमा ने चौंककर पूछा–क्या दस बज गये?
देवी–दस नहीं, ग्यारह का अमल होगा।
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