लोगों की राय

उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास)

ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

438 पाठक हैं

ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


रमा चलने को तैयार हुआ; लेकिन द्वार तक आकर रुक गया।

देवीदीन ने पूछा–‘क्यों, खड़े कैसे हो गये?

‘तुम्हीं चले जाओ, मैं जाकर क्या करूँगा !’

‘क्या डर रहे हो?’

‘नहीं, डर नहीं रहा हूँ, मगर क्या फायदा?’

‘मैं अकेले जाकर क्या करूँगा ! मुझे क्या मालूम, तुम्हें कौन कपड़ा पसन्द है ! चलकर अपनी पसन्द से ले लो। वहीं दरजी को दे देंगे।’

‘तुम जैसा कपड़ा चाहे ले लेना। मुझे सब पसन्द है।’

‘तुन्हें डर किस बात का है? पुलिस तुम्हारा कुछ नहीं करेगी। कोई तुम्हारी तरफ ताकेगा भी नहीं।’

‘मैं डर नहीं रहा हूँ दादा ! जाने की इच्छा नहीं है।’
‘डर नहीं रहे हो, तो क्या कर रहे हो। कह रहा हूँ कि कोई तुम्हें कुछ न कहेगा, इसका मेरा जिम्मा, मुदा तुम्हारी जान निकली जाती है !’

देवीदीन ने बहुत समझाया, आश्वासन दिया; पर रमा जाने पर राजी न हुआ। वह डरने से कितना ही इन्कार करे; पर उसकी हिम्मत घर से बाहर निकलने की न पड़ती थी। वह सोचता था, अगर किसी सिपाही ने पकड़ लिया, तो देवीदीन क्या कर लेगा। माना सिपाही से इसका परिचय भी हो, तो यह आवश्यक नहीं कि वह सरकारी मामले में मैत्री का निर्वाह करे। यह मिन्नत-खुशामद करके रह जायेगा, जायेगी मेरे सिर। कहीं पकड़ जाऊँ, तो प्रयाग के बदले जेल जाना पड़े। आखिर देवीदीन लाचार होकर अकेला ही गया।

देवीदीन घण्टे-भर में लौटा, तो देखा रमा छत पर टहल रहा है। बोला–कुछ खबर है, कै बज गये? बारह का अमल है। आज रोटी न बनाओगे क्या? घर जाने की खुशी में खाना-पीना छोड़ दोगे?

रमा ने झेंपकर कहा–बना लूँगा दादा, जल्दी क्या है।

‘यह देखो, नमूने लाया हूँ, इनमें जौन-सा पसन्द करो, ले लूँ।’

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book