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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


युवकों ने एक कम्बलपोश आदमी को नक्शे की बात पूछते सुना तो समझे कोई अताई होगा। एक ने रूखाई से कहा–हाँ, है तो, मगर तुम देख कर क्या करोगे, यहाँ अच्छे-अच्छे गोते खा रहे हैं। एक महाशय, जो शतरंज में अपना सानी नहीं रखते, उसे हल करने के लिए सौ रुपये अपने पास से देने को तैयार हैं।

दूसरा युवक बोला–दिखा क्यों नहीं देते जी, कौन जाने यही बेचारे हल कर लें, शायद इन्हीं की सूझ लड़ जाये।

इस प्रेरणा में सज्जनता नहीं व्यंग्य था, उसमें यह भाव छिपा था कि हमें दिखाने में कोई उज्र नहीं है, देखकर अपनी आँखों को तृप्त कर लो, मगर तुम जैसे उल्लू उसे समझ ही नहीं सकते, हल क्या करेंगे !

जान-पहचान की एक दूकान में जाकर उन्होंने नक्शा दिखाया। रमा को तुरन्त याद आ गया, यह नक्शा पहले भी कहीं देखा है। सोचने लगा, कहाँ देखा है?

एक युवक ने चुटकी ली–आप ने हल कर लिया होगा?

दूसरा–अभी नहीं किया तो एक क्षण में किये लेते हैं !

तीसरा–ज़रा दो-एक चाल बताइए तो !

रमा ने उत्तेजित होकर कहा–यह मैं नहीं कहता कि मैं इसे हल ही कर लूँगा; मगर ऐसा नक्शा मैंने एक बार हल किया है, और सम्भव है इसे भी हल कर लूँ। जरा कागज-पेंसिल दीजिए तो नकल कर लूँ।

युवकों का अविश्वास कुछ कम हुआ। रमा को कागज-पेंसिल मिल गया। एक क्षण में उसने नक्शा नकल कर लिया और युवकों को धन्यवाद देकर चला। एकाएक उसने फिरकर पूछा–जवाब किसके पास भेजना होगा?

एक युवक ने कहा–‘प्रजा-मित्र’ के सम्पादक के पास।

रमा ने घर पहुँचकर उस नक्शे पर दिमाग लगाना शुरू किया; लेकिन मुहरों की चालें सोचने की जगह वह यही सोच रहा था कि यह नक्शा कहाँ देखा। शायद यह याद आते ही उसे नक्शे का हल भी सूझ जायगा। अन्य प्राणियों की तरह मस्तिष्क भी कार्य में तत्पर न होकर बहाने खोजता है। कोई आधार मिल जाने से वह मानो छुट्टी पा जाता है। रमा आधी रात तक नक्शा सामने खोले बैठा रहा। शतरंज की जो बड़ी-बड़ी मार्के की बाजियाँ खेली थीं, उन सबका नक्शा उसे याद था, पर यह नक्शा कहाँ देखा?

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