उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
सहसा उसकी आँखों के सामने बिजली-सी कौंध गयी। खोई हुई स्मृति मिल गयी। अहा ! राजा साहब ने यह नक्शा दिया था। हाँ, ठीक है। लगातार तीन दिन दिमाग लड़ाने के बाद इसे उसने हल किया था। नक्शे की नकल भी कर लाया था। फिर तो उसे एक-एक चाल याद आ गयी। एक क्षण में नक्शा हल हो गया ! उसने उल्लास से नशे में ज़मीन पर दो-तीन कुलाँटें लगायी, मूछों पर ताव दिया, आईने में मुँह देखा, और चारपाई पर लेट गया। इस तरह अगर महीने में एक नक्शा मिलता जाये, तो क्या पूछना !
देवीदीन अभी आग सुलगा रहा था कि रमा प्रसन्न मुख आकर बोला–दादा, जानते हो ‘प्रजा-मित्र’ अखबार का दफ्तर कहाँ है?
देवीदीन–जानता क्यों नहीं हूँ। यहाँ कौन अखबार है, जिसका पता मुझे न मालूम हो? ‘प्रजा-मित्र’ का संपादक एक रंगीला युवक है, जो हरदम मुँह में पान भरे रहता है। मिलने जाओ, तो आँखों से बातें करता है; मगर है हिम्मत का धनी। दो बेर जेहल हो आया है।
रमा–आज ज़रा वहाँ तक जाओगे?
देवीदीन ने कातर भाव से कहा–मुझे भेजकर क्या करोगे? मैं न जा सकूँगा।
‘क्या बहुत दूर है?’
‘नहीं, दूर नहीं है।’
‘फिर क्या बात है?’
देवीदीन ने अपराधियों के भाव से कहा–बात कुछ नहीं है, बुढ़िया बिगड़ती है। उससे बचन दे चुका हूँ कि सुदेशी-बिदेसी के झगड़े में न पड़ूँगा, न किसी अखबार के दफ्तर में जाऊँगा। उसका दिया खाता हूं, तो उसका हुकुम भी तो बजाना पड़ेगा।
रमा ने मुस्कराकर कहा–दादा, तुम तो दिल्लगी करते हो। मेरा एक बड़ा जरूरी काम है। उसने शतरंज का एक नक्शा छापा था, जिस पर पचास रुपया इनाम है। मैंने वह नक्शा हल कर दिया है। आज छप जाये, तो मुझे यह इनाम मिल जाये। अखबारों के दफ्तर में अक्सर खुफिया पुलिस के आदमी आते-जाते रहते हैं। यही भय है। नहीं, मैं खुद चला जाता; लेकिन तुम नहीं जा रहे हो तो लाचार मुझे ही जाना पड़ेगा। बड़ी मेहनत से यह नक्शा हल किया है। सारी रात जागता रहा हूँ।
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