उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
जग्गो ने पूछा–वह कहाँ गये हैं?
रमा ने बहाना किया–मुझे तो नहीं मालूम, अभी इसी तरफ चले गये हैं। बुढ़िया ने मजूर के सिर का टोकरा उतरवाया और जमीन पर बैठकर एक टूटी सी पंखिया झलती हुई बोली–चरस की चाट लगी होगी और क्या, मैं मर-मर कमाऊँ और यह बैठे-बैठे मौज उठायें और चरस पीयें।
रमा जानता था, देवीदीन चरस पीता है, पर बुढ़िया को शान्त करने के लिए बोला–क्या चरस पीते हैं? मैंने तो नहीं देखा !
बुढ़िया ने पीठ की साड़ी हटाकर उसे पंखी की डंडी से खुजाते हुए कहा–इनसे कौन नशा छूटा है, चरस यह पियें, गाँजा यह पियें, सराब इन्हें चाहिए, भाँग इन्हें चाहिए, हाँ अभी तक अफीम नहीं खायी, या राम जाने खाते हों, मैं कौन हरदम देखती रहती हूँ। मैं तो सोचती हूँ कौन जाने आगे क्या हो, हाथ में चार पैसे होंगे, तो पराये भी अपने हों जायेंगे; पर इस भले आदमी को रत्ती भर चिन्ता नहीं सताती। कभी तीरथ है; कभी कुछ, कभी कुछ मेरा तो (नाक पर उँगली रखकर) नाक में दम आ गया। भगवान उठा ले जाते तो यह कुसंग तो छूट जाती। तब याद करेंगे लाला। तब जग्गो कहाँ मिलेगी, जो कमा-कमाकर गुलछर्रे उड़ाने को दिया करेगी। तब रकत के आँसू न रोयें, तो कह देना कि कोई कहता था। (मजूर से) कै पैसे हुए तेरे?
मजूर ने बीड़ी जलाते हुए कहा–बोझा देख लो दाई गर्दन टूट गयी?
जग्गो ने निर्दय भाव से कहा–हाँ, हाँ गर्दन टूट गयी। बड़ी सुकुमार है न? यह ले, कल फिर चले आना।
मजूर ने कहा–यह तो बहुत कम हैं। मेरा पेट न भरेगा।
जग्गो ने दो पैसे और थोड़े से आलू देकर उसे विदा किया और दूकान सजाने लगी। सहसा उसे हिसाब की याद आ गयी। रमा से बोली–भैया, ज़रा आज का खरचा तो टाँक दो। बाजार में जैसे आग लग गयी है।
बुढ़िया छबड़ियों में चीजें लगा-लगाकर रखती जाती थी और हिसाब भी लिखाती जाती थी। आलू, टमाटर, कद्दू, केले, पालक, सेम, सन्तरे, गोभी, सब चीजों का तौल और दर उसे याद था। रमा से दोबारा पढ़वाकर उसने सुना, तब उसे सन्तोष हुआ। इन सब कामों से छुट्टी पाकर उसने अपनी चिलम भरी और मोढ़े पर बैठकर पीने लगी; लेकिन उसके अन्दाज से मालूम होता था कि वह तम्बाकू का रस लेने के लिए नहीं, दिल को जलाने के लिए पी रही है। एक क्षण के बाद बोली–दूसरी औरत होती तो घड़ी भर इसके साथ निबाह न होता, घड़ी भर। पहर रात से चक्की में जुत जाती हूँ और दस बजे रात तक दुकान पर बैठे सती होती रहती हूँ। खाते-पीते बारह बजते हैं। तब जाकर चार पैसे दिखायी देते हैं, और जो कुछ कमाती हूँ, यह नशे में बराबर कर देता है। सात कोठरी में छिपा के रक्खूँ, पर इसकी निगाह पहुँच जाती है। निकाल लेता है। कभी एकाध चीज़-बस्त बनवा लेती हूँ तो वह आँखों में गड़ने लगती है। तानों से छेदने लगता है। भाग में लड़कों का सुख भोगना नहीं बदा था, तो क्या करूँ ! छाती फाड़ के मर जाऊँ ! माँगे से मौत भी नहीं मिलती। सुख भोगना लिखा होता, तो जवान बेटे चल देते, और इस पियक्कड़ के हाथों मेरी यह साँसत होती ! इसी ने सुदेशी के झगड़े में पकड़कर मेरे लालों की जान ली। आओ इस कोठरी में भैया, तुम्हें मुग्दर की जोड़ी दिखाऊँ। दोनों इस जोड़ी से पाँच-पाँच सौ हाथ फेरते थे।
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