उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
देवीदीन ने चिन्तित स्वर में कहा–तुम्हारा वहाँ जाना ठीक नहीं।
रमा ने हैरान होकर पूछा–तो फिर? क्या डाक से भेज दूँ?
देवीदीन ने एक क्षण सोचकर कहा–नहीं, डाक से क्या भेजोगे। सादा लिफाफा इधर-उधर हो जाये, तो तुम्हारी मेहनत अकारथ जाये। रजिस्ट्री कराओ, तो कहीं परसों पहुँचेगा। कल इतवार है। किसी और ने जवाब भेज दिया, तो इनाम मार ले जायेगा। यह भी तो हो सकता है कि अखबार वाले धाँधली कर बैठे और तुम्हारा जवाब अपने नाम से छापकर रुपया हज़म कर लें।
रमा ने दुविधा में पड़कर कहा–मैं ही चला जाऊँगा।
‘तुम्हें मैं न जाने दूँगा। कहीं फँस जाओ तो बस !’
‘फँसना तो एक दिन है ही। कब तक छिपा रहूँगा?’
‘तो मरने के पहले ही क्यों रोना-पीटना हो? जब फँसोगे, तब देखी जायेगी। लाओ मैं चला जाऊँ। बुढ़िया से कोई बहाना कर दूँगा। अभी भेंट भी हो जायेगी। दफ्तर ही में रहते भी हैं। फिर घूमने-घामने चल देंगे, तो दस बजे से पहले न लौटेंगे।’’
रमा ने डरते-डरते कहा–तो दस बजे बाद जाना, क्या हरज है।
देवीदीन ने खड़े होकर कहा–तब तक कोई दूसरा काम आ गया, तो आज रह जायेगा। घण्टे भर में लौट आता हूँ। अभी बुढ़िया देर में आयेगी।
यह कहते हुए देवीदीन ने अपना काला कम्बल ओढ़ा, रमा से लिफाफा लिया और चल दिया।
जग्गो साग-भाजी और फल लेने मण्डी गयी हुई थी। आध घण्टे में सिर पर एक टोकरी रक्खे और एक बड़ा-सा टोकरा मजूर के सिर पर रखवाये आयी। पसीने से तर थी। आते ही बोली–कहाँ गये? ज़रा बोझा तो उतारो, गरदन टूट गयी।
रमा ने आगे बढ़कर टोकरी उतरवा ली। इतनी भारी थी कि सँभाले न सँभलती थी।
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