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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


एक दिन वकील साहब ने रतन से कहा–मुझे डर है कि मुझे अच्छा होकर तुम्हारी दवा न करनी पड़े।

रतन ने प्रसन्न होकर कहा–इससे बढ़कर क्या बात होगी। मैं तो ईश्वर से मनाती हूँ कि तुम्हारी बीमारी मुझे दे दें।

‘शाम को घूम आया करो। अगर बीमार पड़ने की इच्छा हो, तो मेरे अच्छे हो जाने पर पड़ना।’

‘कहाँ जाऊँ, मेरा तो कहीं जाने को जी नहीं चाहता। मुझे यहीं सबसे अच्छा लगता है।’

वकील साहब को एकाएक रमानाथ का खयाल आ गया। बोले–ज़रा शहर के पार्कों में घूम-घाम कर देखो, शायद रमानाथ का पता चल जाये।

रतन को अपना वादा याद आ गया। रमा को पा जाने की आनन्दमय आशा ने एक क्षण के लिए उसे चंचल कर दिया। कहीं वह पार्क में बैठे मिल जायें, तो पूछूँ, कहिए बाबूजी, अब कहाँ भागकर जाइएगा? इस कल्पना से उसकी मुद्रा खिल उठी। बोली–जालपा से मैंने वादा तो किया था कि पता लगाऊँगी; पर यहाँ आकर भूल गयी।

वकील साहब ने साग्रह कहा–आज चली जाओ। आज क्या, शाम को रोज घण्टे-भर के लिए निकल जाया करो।

रतन ने चिन्तित होकर कहा–लेकिन चिन्ता तो लगी रहेगी।

वकील साहब ने मुस्कुराकर कहा–मेरी? मैं तो अच्छा हो रहा हूँ।

रतन ने सन्दिग्ध भाव से कहा–अच्छा, चली जाऊँगी।

रतन को कल से वकील साहब के आश्वासन पर कुछ सन्देह होने लगा था। उनकी चेष्टा से अच्छे होने का कोई लक्षण उसे ने दिखायी देता था। इनका चेहरा क्यों दिन-दिन पीला पड़ता जाता है ! महराज और कहार से वह यह शंका न कह सकती थी। कविराज से पूछते उसे संकोच होता था। अगर कहीं रमा मिल जाते, तो उनसे पूछती। वह इतने दिनों से यहाँ हैं, किसी दूसरे डॉक्टर को दिखाती। इन कविराजजी से उसे कुछ-कुछ निराशा हो चली थी।

जब रतन चली गयी, तो वकील साहब ने टीमल से कहा–मुझे ज़रा उठाकर बिठा दो टीमल। पड़े-पड़े कमर सीधी हो गयी। एक प्याली चाय पिला दो। कई दिन हो गये, चाय की सूरत नहीं देखी। यह पथ्य मुझे मारे डालता है। दूध देखकर ज्वर चढ़ आता है; पर उनकी खातिर से पी लेता हूँ ! मुझे तो इन कविराज की दवा से कोई फायदा नहीं मालूम होता। तुम्हें क्या मालूम होता है?

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