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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


टीमल ने वकील साहब को तकिये के सहारे बैठाकर कहा–बाबूजी सो देख लेव, यह तो मैं पहले ही कहने वाला था। सो देख लेव, बहू जी के डर के मारे नहीं कहता था।

वकील साहब ने कई मिनट चुप रहने के बाद कहा–मैं मौत से डरता नहीं टीमल। बिलकुल नहीं। मुझे स्वर्ग और नरक पर बिल्कुल विश्वास नहीं है। अगर संस्कारों के अनुसार आदमी को जन्म लेना पड़ता है, तो मुझे विश्वास है, मेरा जन्म किसी अच्छे घर में होगा। फिर भी मरने को जी नहीं चाहता। सोचता हूँ, मर गया तो क्या होगा?

टीमल ने कहा–बाबूजी सो देख लेव, आप ऐसी बातें न करें। भगवान चाहेंगे, तो आप अच्छे हो जायेंगे। किसी दूसरे डॉक्टर को बुला लाऊँ? आप लोग तो अँग्रेजी पढ़े हैं, सो देख लेव, कुछ मानते ही नहीं, मुझे तो कुछ और ही सन्देह हो रहा है। कभी-कभी गँवारों की भी सुन लिया करो। सो देख लेव, आप मानो चाहे, न मानो, मैं तो एक सयाने को लाऊँगा। बंगाल के ओझे-सयाने मसहूर हैं।

वकील साहब ने मुँह फेर लिया। प्रेत-बाधा का वह हमेशा मजाक उड़ाया करते थे। कई ओझों को पीट चुके थे। उनका खयाल था कि यह प्रवंचना है, ढोंग है; लेकिन इस वक्त उनमें इतनी शक्ति भी न थी कि टीमल के इस प्रस्ताव का विरोध करते। मुँह फेर लिया।

महराज ने चाय लाकर कहा–सरकार, चाय लाया हूँ।

वकील साहब ने चाय के प्याले को क्षुधित नेत्रों से देख कर कहा–ले जाओ, अब न पीऊँगा। उन्हें मालूम होगा, तो दुखी होंगी। क्यों महराज, जब से मैं आया हूँ मेरा चेहरा कुछ हरा हुआ है?

महराज ने टीमल की ओर देखा। वह हमेशा दूसरों की राय देख कर राय दिया करते थे। खुद सोचने की शक्ति उनमें न थी। अगर टीमल ने कहा है, आप अच्छे हो रहे हैं, तो वह भी इसका समर्थन करेंगे। टीमल ने इसके विरुद्ध कहा है, तो उन्हें भी इसके विरुद्ध ही कहना चाहिए। टीमल ने उनके असमंजस को भाँप कर कहा–हरा क्यों नहीं है, हाँ, जितना होगा चाहिए उतना नहीं हुआ।

महराज बोले–हाँ, कुछ हरा जरूर हुआ है, मुदा बहुत कम।

वकील साहब ने कुछ जवाब न दिया। दो-चार वाक्य बोलने के बाद वह शिथिल हो जाते थे और दस-पाँच मिनट शान्त अचेत पड़े रहते थे। कदाचित् उन्हें अपनी दशा का यथार्थ ज्ञान हो चुका था। उनके मुख पर, बुद्धि पर, मस्तिष्क पर मृत्यु की छाया पड़ने लगी थी। अगर कुछ आशा थी, तो इतनी ही कि शायद मन की दुर्बलता से उन्हें अपनी दशा इतनी हीन मालूम होती हो। उनका दम अब पहले से ज्यादा फूलने लगा था। कभी-कभी तो ऊपर की साँस ऊपर ही रह जाती थी। जान पड़ता था बस अब प्राण निकला। भीषण प्राण-वेदना होने लगी थी। कौन जाने, कब यही अवरोध एक क्षण और बढ़कर जीवन का अन्त कर दे।

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