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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


टीमल ने आचमनी में गंगाजल लेकर उनके मुँह में डाल दिया। आज उन्होंने कुछ बाधा न दी। वह जो रूढ़ियों और रूढ़ियों का शत्रु था, इस समय शान्त हो गया था, इसलिए नहीं कि उसमें धार्मिक विश्वास का उदय हो गया था, बल्कि इसलिए कि उसमें अब कोई इच्छा न थी। इतनी ही उदासीनता से वह विष का घूँट पी जाता।

मानव-जीवन की सबसे महान् घटना कितनी शान्ति के साथ घटित हो जाती है। वह विश्व का एक महान् अंग, वह महत्त्वाकांक्षाओं का प्रचण्ड सागर, वह उद्योग का अनन्त भण्डार, वह प्रेम और द्वेष, सुख और दुःख का लीला क्षेत्र, वह बुद्धि और बल की रंगभूमि न जाने कब और कहाँ लीन हो जाती है, किसी को खबर नहीं होती। एक हिचकी भी नहीं, एक उच्छ्वास भी नहीं, एक आह भी नहीं निकलती ! सागर की हिलोरों का कहाँ अन्त होता है, कौन बता सकता है। ध्वनि कहाँ वायु-मग्न हो जाती है, कौन जानता है? मानवीय जीवन उस हिलोर के सिवा, उस ध्वनि के सिवा और क्या है। इसका अवसान भी उतनी ही शान्त, उतना ही अदृश्य हो तो क्या आश्चर्य है। भूतों के भक्त पूछते हैं, क्या वस्तु निकल गयी? कोई विज्ञान का उपासक कहता है, एक क्षीण-ज्योति निकल जाती है। कपोल-विज्ञान के पुजारी कहते हैं, आँखों से प्राण निकले, मुँह से निकले, ब्रह्माण्ड से निकले। कोई उनसे पूछे, हिलोर लय होते समय क्या चमक उठती है? ध्वनि लीन होते समय क्या मूर्तिमान हो जाती है? यह उस अनन्त-यात्रा का एक विश्राम मात्र है, जहाँ यात्रा का अन्त नहीं, नया उत्थान होता है।

कितना महान् परिवर्तन ! वह जो मच्छर के डंक को सहन न कर सकता था, अब उसे चाहे मिट्टी में दबा दो, चाहे अग्नि-चिता पर रख दो, उसके माथे पर बल तक न पड़ेगा।

टीमल ने वकील साहब के मुख की ओर देखकर कहा–बहूजी, आइए खाट से उतार दें। मालिक चले गये !

यह कहकर वह भूमि पर बैठ गया और दोनों आँखों पर हाथ रखकर फूट-फूटकर रोने लगा। आज तीस वर्ष का साथ छूट गया। जिसने कभी आधी बात नहीं कही, कभी तू करके नहीं पुकारा, वह मालिक अब उसे छोड़ चला जा रहा था।

रतन अभी तक कविराज की बाट जोह रही थी। टीमल के मुख से यह शब्द सुनकर उसे धक्का-सा लगा। उसने उठकर पति की छाती पर हाथ रक्खा। साठ वर्ष तक अविश्राम गति से चलने के बाद वह अब विश्राम कर रही थी। फिर उसे माथे पर हाथ रखने की हिम्मत न पड़ी। उस देह को स्पर्श करते हुए, उस मरे हुए मुख की ओर ताकते हुए, उसे ऐसा विराग हो रहा था, जो ग्लानि से मिलता था। अभी जिन चरणों पर सिर रखकर वह रोयी थी, उसे छूते हुए उसकी उँगलियाँ कटी-सी जाती थीं। जीवन-सूत्र इतना कोमल है, उसने कभी न समझा था। मौत का खयाल कभी उसके मन में न आया था। उस मौत ने आँखों के सामने उसे लूट लिया !

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