उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
|
438 पाठक हैं |
ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
पछतावे की एक-दो बात थी ! इस आठ साल के जीवन में मैंने पति को क्या आराम पहुँचाया? वह बारह बजे रात तक कानूनी पुस्तकें देखते रहते थे, मैं पड़ी सोती रहती थी। वह सन्ध्या समय भी मुवक्किलों के मामले की बातें करते थे, मैं पार्क और सिनेमा की सैर करती थी, बाज़ारों में मटरगश्ती करती थी। मैंने इन्हें धनोपार्जन के एक यन्त्र के सिवा और क्या समझा ! यह कितना चाहते थे कि मैं इनके साथ बैठूँ और बातें करूँ; पर मैं भागती फिरती थी। मैंने कभी इनके हृदय के समीप जाने की चेष्टा नहीं की, कभी प्रेम की दृष्टि से नहीं देखा। अपने घर में दीपक न जलाकर दूसरों के उजाले घर का आनन्द उठाती फिरी–मनोरंजन के सिवा मुझे और कुछ सूझता ही न था। विलास और मनोरंजन, यही मेरे जीवन के दो लक्ष्य थे। अपने जले हुए दिल को इस तरह शान्त करके मैं सन्तुष्ट थी। खीर और मलाई की थाली क्यों न मुझे मिली, इस क्षोभ में मैंने अपनी रोटियों को लात मार दी।
आज रतन को उस प्रेम का पूर्ण परिचय मिला, जो इस बिदा होने वाली आत्मा को उससे था–वह इस समय भी उसी चिन्ता में मग्न थी। रतन के लिए जीवन में फिर भी कुछ आनन्द था, कुछ रुचि थी, कुछ उत्साह था। इनके लिए जीवन में कौन सा सुख था। न खाने-पीने का सुख, न मेले-तमासे का शौक। जीवन क्या, एक दीर्घ तपस्या थी, जिसका मुख्य उद्देश्य कर्तव्य का पालन था? क्या रतन उनका जीवन सुखी न बना सकती थी? कौन कह सकता है कि विराम और विश्राम से यह बुझने वाला दीपक कुछ दिन और न प्रकाशमान रहता। लेकिन उसने कभी अपने पति के प्रति अपना कर्तव्य ही न समझा। उसकी अंतरात्मा सदैव विद्रोह करती रही। केवल इसलिए कि इनसे मेरा संबंध क्यों हुआ। क्या उस विषय में सारा अपराध इन्हीं का था ! कौन कह सकता है कि दरिद्र माता-पिता ने मेरी और भी दुर्गति न की होती–जवान आदमी भी सबके सब क्या आदर्श ही होते हैं? उनमें भी तो व्याभिचारी, क्रोधी, शराबी, सभी तरह के होते हैं। कौन कह सकता है, इस समय मैं किस दशा में होती? रतन का एक-एक रोआँ इस समय उसका तिरस्कार कर रहा था। उसने पति के शीतल चरणों में सिर झुका लिया और बिलख-बिलखकर रोने लगी। वह सारे कठोर भाव जो बराबर उसके मन में उठते रहते थे, वह सारे कटु वचन जो उसने जल-जलकर उन्हें कहे थे, इस समय सैकड़ों बिच्छुओं के समान उसे डंक मार रहे थे। हाय ! मेरा यह व्यवहार उस प्राणी के साथ था, जो सागर की भाँति गँभीर था। इस हृदय में कितनी कोमलता थी, कितनी उदारता ! मैं एक बीड़ा पान दे देती थी, तो कितने प्रसन्न हो जाते थे। जरा हँसकर बोल देती थी, तो कितने तृप्त हो जाते थे; पर मुझसे इतना भी न होता था। इन बातों को याद कर-करके उसका हृदय फटा जाता था। उन चरणों पर सिर रक्खे हुए उसे प्रबल आकांक्षा हो रही थी कि मेरे प्राण इसी क्षण निकल जायँ। उन चरणों को मस्तक से स्पर्श करके आज उसके हृदय में कितना अनुराग उमड़ आता था, मानो एक युग की संचित निधि को वह आज ही, इसी क्षण लुटा देगी। मृत्यु की दिव्य ज्योति के सम्मुख उसके अन्दर का सारा मालिन्य, सारी दुर्भावना, सारा विद्रोह मिट गया था।
वकील साहब की आँखें खुली हुई थीं; पर मुख पर किसी भाव का चिह्न न था। रतन की विह्वलता भी अब उनकी बुझती हुई चेतना को प्रदीप्त न कर सकती थी। हर्ष और शौक के बन्धन से वह मुक्त हो गये थे, कोई रोये तो गम नहीं, हँसे तो खुशी नहीं।
|