उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
[७]
रात के दस बज गये थे। जालपा खुली हुई छत पर लेटी हुई थी। जेठ की सुनहरी चाँदनी में सामने फैले हुए नगर के कलश, गुम्बद और वृक्ष स्वप्न-चित्रों से लगते थे। जालपा की आँखें चन्द्रमा की ओर लगी हुई थीं। उसे ऐसा मालूम हो रहा था, मैं चन्द्रमा की ओर उड़ी जा रही हूँ। उसे अपनी नाक में खुश्की, आँखों में जलन और सिर में चक्कर मालूम हो रहा था। कोई बात ध्यान में आते ही भूल जाती, और बहुत याद करने पर भी याद न आती थी। एक बार घर की याद आ गयी, रोने लगी। एक ही क्षण में सहेलियों की याद आ गयी। हँसने लगी। सहसा रमानाथ हाथ में एक पोटली लिये, मुस्कराता हुआ आया और चारपाई पर बैठ गया।
जालपा ने उठकर पूछा–पोटली में क्या है?
रमानाथ–बूझ जाओ तो जानूँ।
जालपा–हँसी का गोलगप्पा है ! (यह कहकर हँसने लगी।)
रमानाथ–गलत।
जालपा–नींद की गठरी होगी !
रमानाथ–गलत।
जालपा–तो प्रेम की पिटारी होगी !
रमानाथ–ठीक। आज मैं तुम्हें फूलों की देवी बनाऊँगा।
जालपा खिल उठी। रमा ने बड़े अनुराग से उसे फूलों के गहने पहनाने शुरू किये, फूलों के शीतल कोमल स्पर्श से जालपा के कोमल शरीर में गुदगुदी सी होने लगी। उन्हीं फूलों की भाँति उसका एक-एक रोम प्रफुल्लित हो गया।
रमा ने मुस्कराकर कहा–कुछ उपहार?
जालपा ने कुछ उत्तर न दिया। इस वेश में पति की ओर ताकते हुए भी उसे संकोच हुआ। उसकी बड़ी इच्छा हुई कि जरा आइने में अपनी छवि देखे। सामने कमरे में लैम्प जल रहा था, वह उठकर कमरे में गयी और आइने के सामने खड़ी हो गयी। नशे की तरंग में उसे ऐसा मालूम हुआ कि मैं सचमुच फूलों की देवी हूँ। उसने पानदान उठा लिया और बाहर आकर पान बनाने लगी।
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