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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


रतन ने अपराधी नेत्रों से उसकी ओर देखकर कहा– दादाजी ने मन में क्या समझा होगा। सोचते होंगे, मैं तो जान से मर रहा हूँ और इसे हँसी सूझती है। अब वहाँ न जाऊँगी, नहीं ऐसी ही कोई बात फिर कहेंगे, तो मैं बिना हँसे न रह सकूँगी। देखो तो आज कितनी बे-मौका हँसी आयी है।

वह अपने मन को इस उच्छृंखला के लिए धिक्कारने लगी। जालपा ने उसके मन का भाव ताड़कर कहा–मुझे भी अकसर इनकी बातों पर हँसी आ जाती है बहन ! इस वक्त तो इनका ज्वर कुछ हलका है। जब जोर का ज्वर होता है तब तो यह और भी ऊल-जलूल बकने लगते हैं। उस वक्त हँसी रोकनी मुश्किल हो जाती है। आज सवेरे कहने लगे–मेरा पेट भक हो गया–मेरा पेट भक हो गया। इसकी रट लगा दी। इसका आशय क्या था, न मैं समझ सकी, न अम्मा समझ सकीं; पर वह बराबर यही रटे जाते थे–पेट भक हो गया ! पेट भक हो गया ! आओ कमरे में चलें।

रतन–मेरे साथ न चलोगी?

जालपा–आज तो न चल सकूँगी, बहन।

‘कल आओगी?’

‘कह नहीं सकती। दादा जी का ज्वर कुछ हलका रहा, तो आऊँगी।’

‘नहीं भाई, जरूर आना। तुमसे एक सलाह करनी है।’
‘क्या सलाह है?’

‘मुन्नी कहते हैं, यहाँ अब रहकर क्या करना है, घर चलो। बँगले को बेच देने को कहते हैं।’

जालपा ने एकाएक ठिठककर उसका हाथ पकड़ लिया और बोली–यह तो तुमने बुरी खबर सुनायी बहन ! मुझे इस दशा में तुम छोड़कर चली जाओगी? मैं न जाने दूँगी ! मुन्नी से कह दो, बँगला बेच दें; मगर जबतक उनका कुछ पता न चल जायेगा, मैं तुम्हें न छोड़ूँगी। तुम कुल एक हफ्ते बाहर रहीं, मुझे एक-एक पल पहाड़ हो गया। मैं न जानती थी कि मुझे तुमसे इतना प्रेम हो गया है। अब तो शायद मैं मर ही जाऊँ। नहीं बहन, तुम्हारे पैरों पड़ती हूँ, अभी जाने का नाम न लेना।

रतन की भी आँखें भर आयीं। बोली–मुझसे भी वहाँ न रहा जायेगा, सच कहती हूँ। मैं तो कह दूँगी मुझे नहीं जाना। जालपा उसका हाथ पकड़े हुए ऊपर अपने कमरे में ले गयी और उसके गले में हाथ डालकर बोली–कसम खाओ कि मुझे छोड़कर न जाओगी।

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