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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


इसी उधेड़-बुन में वह आज रतन से न मिल सकी। रतन दिन भर तो उसकी राह देखती रही। जब वह शाम को भी न आयी, तो उससे न रहा गया। आज वह पति-शोक के बाद पहली बार घर से निकली। कहीं रौनक न थी, कहीं जीवन न था, मानो सारा नगर शोक मना रहा है। उसे तेज़ मोटर चलाने की धुन थी; पर आज वह ताँगे से भी कम जा रही थी। एक वृद्धा को सड़क के किनारे बैठे देखकर उसने मोटर रोक दिया और उसे चार आने दे दिये। कुछ आगे और बढ़ी, तो दो कांस्टेबल एक किसी कैदी को लिये जा रहे थे। उसने मोटर रोककर एक कांस्टेबल को बुलाया और उसे एक रुपया देकर कहा–इस कैदी को मिठायी खिला देना। कांस्टेबल ने सलाम करके रुपया ले लिया। दिल में खुश हुआ, आज किसी भाग्यवान् का मुँह देखकर उठा था।

जालपा ने उसे देखते ही कहा–क्षमा करना बहन, आज मैं न आ सकी। दादाजी को कई दिन से ज्वर आ रहा है।

रतन ने तुरन्त मुंशीजी के कमरे की ओर कदम उठाया और पूछा–यहीं हैं न? तुमने मुझसे न कहा।

मुंशीजी का ज्वर इस समय कुछ उतरा हुआ था। रतन को देखते ही बोले–बड़ा दुःख हुआ देवीजी, मगर यह तो संसार है। आज एक की बारी है, कल दूसरे की बारी है। यही चल-चलाव लगा हुआ है। अब मैं भी चला। नहीं बच सकता। बड़ी प्यास है, जैसे छाती में कोई भट्ठी जल रही हो। फुँका जाता हूँ। कोई अपना नहीं होता। बाईजी, संसार के नाते सब स्वार्थ के नाते हैं। आदमी अकेला हाथ पसारे एक दिन चला जाता है। हाय हाय ! लड़का था वह भी हाथ से निकल गया। न जाने कहाँ गया। आज होता, तो एक चुल्लू पानी देने वाला तो होता। यह दो लौंडे हैं, इन्हें कोई फिक्र ही नहीं, मैं मर जाऊँ या जी जाऊँ। इन्हें तीन दफे खाने को चाहिए, तीन दफे पानी पीने को। बस और किसी काम के नहीं। यहाँ बैठते दोनों का दम घुटता है। क्या करूँ। अबकी न बचूँगा।

रतन ने तस्कीन दी–यह मलेरिया है, दो-चार दिन में आप अच्छे हो जायँगे। घबड़ाने की कोई बात नहीं।

मुंशीजी ने दीन नेत्रों से देखकर कहा–बैठ जाइये बहूजी, आप कहती हैं, आपका आशीर्वाद है, तो शायद बच जाऊँ, लेकिन मुझे तो आशा नहीं है। मैं भी ताल ठोंके यमराज से लड़ने को तैयार बैठा हूँ। अब उनके घर मेहमानी खाऊँगा। अब कहाँ जाते हैं बचकर बचा ! ऐसा-ऐसा रगेदूँ, कि वह भी याद करें। लोग कहते हैं, वहाँ भी आत्माएँ इसी तरह रहती हैं। इसी तरह वहाँ भी कचहरियाँ हैं, हाकिम हैं, राजा हैं, रंक हैं। व्याख्यान होते हैं, समाचार पत्र छपते हैं। फिर क्या चिन्ता है। वहाँ भी अहलमद हो जाऊँगा। मजे़ से अखबार पढ़ा करूँगा।

रतन को ऐसी हँसी छूटी कि वहाँ खड़ी न रह सकी। मुंशीजी विनोद के भाव से वे बातें नहीं कर रहे थे। उनके चेहरे पर गम्भीर विचार की रेखा थी। आज डेढ़-दो महीने के बाद रतन हँसी, और इस असामयिक हँसी को छिपाने के लिए कमरे से निकल आयी। उसके साथ जालपा भी बाहर आ गयी।

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