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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


उसी वक्त मुंशीजी पुकार उठे–बहू ! बहू !

जालपा तो लपकी हुई उनके कमरे की ओर चली। रतन बाहर जा रही थी कि जागेश्वरी पंखा लिये अपने को झलती हुई दिखायी पड़ गयीं। रतन ने पूछा–तुम्हें गरमी लग रही है अम्माजी? मैं तो ठण्ड के मारे काँप रही हूँ। अरे ! तुम्हारे पाँवों में यह क्या उजला-उजला लगा हुआ है? क्या आटा पीस रही थीं?

जागेश्वरी ने लज्जित होकर कहा–हाँ, वैद्य जी ने इन्हें हाथ के आटे की रोटी खाने को कहा है। बाजार में हाथ का आटा कहाँ मयस्सर? मुहल्ले में कोई पिसनहारी नहीं मिलती। मजूरिनें तक चक्की से आटा पिसवा लेती हैं। मैं तो एक आना सेर देने को राज़ी हूँ; पर कोई मिलती ही नहीं।

रतन ने अचम्भे से कहा–तुमसे चक्की चल जाती है?

जागेश्वरी ने झेंप से मुस्कराकर कहा–कौन बहुत था। पाव भर तो दो दिन के लिए हो जाता है। खाते नहीं एक कौर भी। बहू पीसने जा रही थी; लेकिन फिर मुझे उनके पास बैठना पड़ता। मुझे रात भर चक्की पीसना गौं है, उनके पास घड़ी भर बैठना गौं नहीं।

रतन जाकर जाँत के पास एक मिनट खड़ी रही, फिर मुस्कराकर माची पर बैठ गयी और बोली–तुमसे तो अब जाँत न चलता होगा, माँजी। लाओ थोड़ा सा गेहूँ मुझे दो, देखूँ तो।

जागेश्वरी ने कानों पर हाथ रखकर कहा–अरे नहीं बहू, तुम क्या पीसोगी। चलो यहाँ से।

रतन ने प्रमाण दिया–मैंने बहुत दिनों तक पीसा है माँजी। जब मैं अपने घर थी, तो रोज़ पीसती थी। मेरी अम्मा, लाओ थोड़ा सा गेहूँ।

‘हाथ दुखने लगेगा। छाले पड़ जायेंगे।’

‘कुछ नहीं होगा माँजी, आप गेहूँ तो लाइए।’
 
जागेश्वरी ने उसका हाथ पकड़कर उठाने की कोशिश करके कहा–गेहूँ घर में नहीं हैं। अब इस वक्त बाजार से कौन लावे।

‘अच्छा चलिए मैं आपके भण्डारे में देखूँ। गेहूँ होगा कैसे नहीं।’

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