उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
रसोई की बगल वाली कोठरी में सब खाने-पीने का सामान रहता था। रतन अन्दर चली गयी और हाँड़ियों में टटोल-टटोलकर देखने लगी। एक हाँड़ी में गेहूँ निकल आये। बड़ी खुशी हुई। बोली–देखो माँजी, निकले कि नहीं, तुम मुझसे बहाना कर रही थीं।
उसने एक टोकरी में थोड़ा सा गेहूँ निकाल लिया और खुशी-खुशी चक्की पर जाकर पीसने लगी। जागेश्वरी ने जाकर जालपा से कहा–बहू, वह जाँत पर बैठे गेहूँ पीस रही हैं। उठाती हूँ, उठती ही नहीं। कोई देख ले तो क्या कहे।
जालपा ने मुंशीजी के कमरे से निकलकर सास की घबड़ाहट का आनन्द उठाने के लिए कहा–यह तुमने क्या गजब किया अम्माजी ! सचमुच, कोई देख ले तो नाक ही कट जाये ! चलिए, ज़रा देखूँ।
जागेश्वरी ने विवशता से कहा–क्या करूँ, मैं तो समझा के हार गयी, मानती ही नहीं। जालपा ने जाकर देखा, तो रतन गेहूँ पीसने में मग्न थी। विनोद के स्वाभाविक आनन्द से उसका चेहरा खिला हुआ था। इतनी ही देर में उसके माथे पर पसीने की बूँदें आ गयी थीं। उसके बलिष्ठ हाथों में जाँत लट्टू के समान नाच रहा था।
जालपा ने हँसकर कहा–ओ री, आटा महीन हो, नहीं पैसे न मिलेंगे। रतन को सुनायी न दिया। बहरों की भाँति अनिश्चित भाव से मुस्करायी। जालपा ने और ज़ोर से कहा–आटा खूब महीन पीसना, नहीं पैसे न पायेगी। रतन ने भी हँसकर कहा–जितना महीन कहिए, उतना महीन पीस दूँ बहूजी। पिसाई अच्छी मिलनी चाहिए।
जालपा–धेले सेर।
रतन–धेले सेर सही।
जालपा–मुँह धो आओ। धेले सेर मिलेंगे।
रतन–मैं यह सब पीसकर उठूँगी। तुम यहाँ क्यों खड़ी हो?
जालपा–आ जाऊँ, मैं भी खिंचा दूँ।
रतन–जी चाहता है, कोई जाँत का गीत गाऊँ !
जालपा–अकेले कैसे गाओगी? (जागेश्वरी से) अम्मा, जरा आप दादाजी के पास बैठ जायँ; मैं अभी आती हूँ।
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