उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
देवी–कमानेवाला तो मैं ही हूँ भैया, लड़कों का हाल जानते ही हो। तन-पेट काटकर कुछ रुपये जमा कर रक्के थे, सो अभी सातों धाम किये चला आता हूँ। बहुत तंग हो गया हूँ।
दारोग़ा–तो अपनी गिन्नियाँ उठा ले। इसे बाहर निकाल दो जी।
देवी–आपका हुकुम है, तो लीजिए जाता हू। धक्के क्यों दिलवाइएगा।
दारोगा–(कांस्टेबल) इन्हें हिरासत में रक्खो। मुंशी से कहो इनका बयान लिख लें।
देवीदीन के होंठ आवेश से काँप रहे थे। उसके चेहरे पर इतनी व्यग्रता रमा ने कभी नहीं देखी थी, जैसे कोई चिड़िया अपने घोसले में कौवे को घुसते देखकर विह्वल हो गयी हो। वह एक मिनट तक थाने के द्वार पर खड़ा रहा, फिर पीछे फिरा और एक सिपाही से कुछ कहा, तब लपका हुआ सड़क तक चला गया; मगर एक ही पल में फिर लौटा और दारोगा से बोला–हुजूर, दो घंटे की मुहलत न दीजिएगा?
रमा अभी वहीं खड़ा था। उसकी यह ममता देखकर रो पड़ा। बोला–दादा, अब तुम हैरान न हो, मेरे भाग्य में जो लिखा है वह होने दो। मेरे पिता भी यहाँ होते, तो इससे ज्यादा और क्या करते। मैं मरते दम तक तुम्हारा उपकार...
देवीदीन ने आँखें पोंछते हुए कहा–कैसी बातें करते हो भैया। जब रुपयों पर आयी तो देवीदीन पीछे हटने वाला आदमी नहीं है। इतने रुपये तो एक-एक दिन जुए में हार-जीत गया हूँ। अभी घर बेच दूँ, तो दस हज़ार की मालियत है। क्या सिर पर लादकर ले जाऊँगा। दारोग़ाजी, अभी भैया को हिरासत में न भेजो। मैं रुपये की फिकर करके थोड़ी देर में आता हूँ।
देवीदीन चला गया तो दारोग़ाजी ने सहृदयता से भरे हुए स्वर में कहा–है तो खुर्राट, मगर बड़ा नेक। तुमने इसे कौन सी बूटी सुँघा दी?
रमा ने कहा–ग़रीबों पर सभी को रहम आता है।
दारोगा ने मुस्कराकर कहा–पुलिस को छोड़कर, इतना और कहिए। मुझे तो यकीन नहीं कि पचास गिन्नियाँ लावे।
रमा–अगर लाये भी तो उससे इतना बड़ा तावान नहीं दिलाना चाहता। आप मुझे शौक से हिरासत में ले लें।
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