उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
देवी.––हुजूर को सलाम करने चला आया। इन बेचारे पर दया की नज़र रहे हुजूर, बेचारे बड़े सीधे आदमी हैं।
दारोगा–बचा सरकारी मुलज़िम को घर छिपाते हो; उस पर सिफारिश करने आये हो !
देवी–मैं क्या सिपारिस करूँगा हुजूर, दो कौड़ी का आदमी।
दारोग़ा–जानता है, इन पर वारंट है, सरकारी रुपये ग़बन कर गये हैं।
देवी–हुजूर, भूल-चूक आदमी से ही होती है। जवानी की उम्र है ही, खरच हो गये होंगे।
यह कहते हुए देवीदीन ने पाँच गिन्नियाँ कमर से निकालकर मेज पर रख दीं।
दारोगा ने तड़पकर कहा–यह क्या है?
देवी–कुछ नहीं है, हुजूर को पान खाने को।
दारोग़ा–रिश्वत देना चाहता है ! क्यों? कहो तो बचा इसी इलजाम में भेज दूँ।
देवी–भेज दीजिए सरकार। घरवाली लकड़ी-कफन की फिकर से छूट जायेगी। वहीं बैठा आपको दुआ दूँगा।
दारोग़ा–अबे इन्हें छुड़ाना है, तो पचास गिन्नियाँ लाकर सामने रक्खो। जानते हो इनकी गिरफ्तारी पर पाँच सौ रुपये का इनाम है !
देवी–आप लोगों के लिए इतना इनाम हुजूर क्या है? यह गरीब परदेसी आदमी है, जब तक जियेंगे आपको याद करेंगे।
दारोग़ा–बक-बक मत कर, यहाँ धरम कमाने नहीं आया हूँ।
देवी–बहुत तंग हूँ हुजूर। दुकान-दारी तो नाम की है।
कांस्टेबल–बुढ़िया से मांग जाके।
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