उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
डिप्टी–यह तो होगा ही। गवर्नमेंट से इसका बारे में बातचीत करना होगा। आप टेलीफोन मिलाकर इलाहाबाद पुलिस से पूछिए कि इस आदमी पर कैसा मुकदमा है? यह सब तो गवर्नमेंट को बताना होगा।
दारोग़ाजी ने टेलीफोन डायरेक्टरी देखी, नम्बर मिलाया और बातचीत शुरू हुई।
डिप्टी–क्या बोला?
दारोग़ा–कहता है, यहाँ इस नाम के किसी आदमी पर मुकदमा नहीं है।
डिप्टी–यह कैसा है भाई, कुछ समझ में नहीं आता। इसने नाम तो नहीं बदल दिया?
दारोगा–कहता है म्युनिसिपैलिटी में किसी ने रुपये ग़बन नहीं किये। कोई मामला नहीं है।
डिप्टी–ये तो बड़ा ताज्जुब का बात है। आदमी बोलता है हम रुपया लेकर भागा, म्युनिसिपैलिटी बोलता है, कोई रुपया ग़बन नहीं किया। यह आदमी पागल तो नहीं है?
दारोगा–मेरी समझ में कोई बात नहीं आती। अगर कह दें कि तुम्हारे ऊपर कोई इल्जाम नहीं है, तो फिर उसकी गर्द भी न मिलेगी।
‘अच्छा म्युनिसिपैलिटी के दफ्तर से पूछिए।’
दारोग़ा ने फिर नम्बर मिलाया। सवाल-जवाब होने लगा।
दारोगा–आपके यहाँ रमानाथ कोई क्लर्क था?
जवाब–जी हाँ, था।
दारोगा–वह कुछ रुपये ग़बन करके भागा है?
जवाब–नहीं। वह घर से भागा है, पर ग़बन नहीं किया। क्या वह आपके यहाँ है?
दारोगा–जी हाँ, हमने उसे गिरफ्तार किया है। वह खुद कहता है कि मैंने रुपये ग़बन किये। बात क्या है?
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