उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
जवाब–पुलिस तो लालबुझक्कड़ है। जरा दिमाग लड़ाइए।
दारोगा–यहाँ तो अक्ल काम नहीं करती।
जवाब–यही क्या, कहीं भी काम नहीं करती। सुनिए, रमानाथ ने मीज़ान लगाने में गलती की, डरकर भागा। बाद को मालूम हुआ कि तहबील में कोई कमी न थी। आयी समझ में बात।
डिप्टी–अब क्या करने होगा खाँ साहब ! चिड़िया हाथ से निकल गयी !
दारोगा–निकल कैसे जायगी हुजूर। रमानाथ से यह बात कही ही क्यों जाये? बस उसे किसी ऐसे आदमी से मिलने न दिया जाये जो बाहर की खबरें पहुँचा सके। घर वालों को उसका पता अब लग जावेगा ही, कोई-न-कोई ज़रूर उसको तलाश में आवेगा। किसी को न आने दें। तहरीर में कोई बात न लायी जाय। ज़वाबी इतमीनान दिला दिया जाय। कह दिया जाय, कमिश्नर साहब को मुआफ़ीनामे के लिए रिपोर्ट की गयी है। इन्सपेक्टर साहब से भी राय ले ली जाय।
इधर तो यह लोग सुपरिटेंडेंट से परामर्श कर रहे थे, उधर एक घण्टे में देवीदीन लौटकर थाने आया तो कांस्टेबल ने कहा–दारोग़ा जी तो साहब के पास गये।
देवीदीन ने घबड़ाकर कहा–तो बाबूजी को हिरासत में डाल दिया?
कांस्टेबल–नहीं उन्हें भी साथ ले गये।
देवीदीन ने सिर पीटकर कहा–पुलिस वालों की बात का कोई भरोसा नहीं। कह गया कि एक घंटे में रुपये लेकर आता हूँ, मगर इतना भी सबर न हुआ। सरकार से पाँच ही सौ तो मिलेंगे। मैं छः सौ देने को तैयार हूँ। हाँ, सरकार में कारगुजारी हो जायेगी और क्या। वहीं से उन्हें परागराज भेज देंगे। मुझसे भेंट भी न होगी। बुढ़िया रो-रोकर मर जायेगी। यह कहता हुआ देवीदीन वहीं जमीन पर बैठ गया।
कांस्टेबल ने पूछा–तो यहाँ कब तक बैठे रहोगे?
देवीदीन ने मानो कोड़े की काट से आहत होकर कहा–अब तो दारोग़ा जी से दो-दो बातें करके ही जाऊँगा। चाहे जेहल ही जाना पड़े, पर फटकारूँगा जरूर, बुरी तरह फटकारूँगा। आखिर उनके भी तो बाल-बच्चे होंगे ! क्या भगवान को ज़रा भी नहीं डरते ! तुमने बाबूजी को जाती बार देखा था? बहुत रंजीदा थे?
कांस्टेबल–रंजीदा तो नहीं थे, खासी तरह हँस रहे थे। दोनों जने मोटर में बैठकर गये हैं।
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