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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


आधी रात बीत चुकी थी। चन्द्रमा चोर की भाँति एक वृक्ष की आड़ से झाँक रहा था। जालपा पति के गले में हाथ डाले हुए निद्रा में मग्न थी। रमा मन में विकट संकल्प करके धीरे से उठा; पर निद्रा की गोद में सोये हुए पुष्पप्रदीप ने उसे अस्थिर कर दिया। वह एक क्षण खड़ा मुग्ध नेत्रों से जालपा के निद्रा-विहसित मुख की ओर देखता रहा। कमरे में जाने का साहस न हुआ। फिर लेट गया।

जालपा ने चौंककर पूछा–कहाँ जाते हो, क्या सवेरा हो गया?

रमानाथ–अभी तो बड़ी रात है।

जालपा–तो तुम बैठे क्यों हो?

रमानाथ–कुछ नहीं ज़रा पानी पीने उठा था।

जालपा ने प्रेमातुर होकर रमा के गले में बाँहे डाल दीं और उसे सुलाकर कहा–तुम इस तरह मुझ पर टोना करोगे, तो मैं भाग जाऊँगी। न जाने किस तरह ताकते हो, क्या करते हो क्या मंत्र पढ़ते हो कि मेरा मन चंचल हो जाता है। बासंती सच कहती थी, पुरुषों की आँख में टोना होता है।

रमा ने फूटे हुए स्वर में कहा–टोना नहीं कर रहा हूँ, आँखों की प्यास बुझा  रहा हूँ।

दोनों फिर सोये, एक उल्लास में डूबी हुई, दूसरा चिन्ता में मग्न।

तीन घंटे और गुज़र गये। द्वादशी के चाँद ने अपना विश्व-दीपक बुझा दिया। प्रभात की शीतल-समीर प्रकृति को मद के प्याले पिलाती फिरती थी। आधी रात तक जागने वाला बाजार भी सो गया। केवल रमा अभी तक जाग रहा था। मन में भाँति-भाँति के तर्क-वितर्क उठने के कारण वह बार-बार उठता था और फिर लेट जाता था। आखिर जब चार बजने की आवाज कान में आयी, तो घबराकर उठ बैठा और कमरे में जा पहुँचा। गहनों का सन्दूकचा आलमारी में रक्खा हुआ था, रमा ने उठा लिया, और थरथर काँपता हुआ नीचे उतर गया। इस घबड़ाहट में उसे इतना अवकाश न मिला कि वह कुछ गहने छाँटकर निकाल लेता।

दयानाथ नीचे बरामदे में सो रहे थे। रमा ने उन्हें धीरे से जगाया, उन्होंने हकबकाकर पूछा–कौन?

रमा ने ओंठ पर उँगली रखकर कहा–मैं हूँ। यह सन्दूकची लाया हूँ। रख लीजिए।

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