लोगों की राय

उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास)

ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

438 पाठक हैं

ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


जालपा–गोपीनाथ तो शायद न जा सकें। दादा की दवा-दारू के लिए भी तो कोई चाहिए।

रतन–वह मैं कर दूंगी। मैं रोज सबेरे आ जाऊँगी और दवा करके चली जाऊँगी। शाम को भी एक बार देख जाया करूँगी।

जालपा ने मुस्कराकर कहा–और दिनभर उनके पास बैठा कौन रहेगा?

रतन–मैं थोड़ी देर बैठी भी रहा करूँगी; मगर तुम आज ही जाओ। बेचारे वहाँ न जाने किस दशा में होंगे। तो यही तय रही न?

रतन मुंशीजी के कमरे में गयी, तो रमेश बाबू उठकर खड़े हो गये और बोले–आइए देवीजी, रमा बाबू का पता तो चल गया !

रतन–इसमें आधा श्रेय मेरा है।

रमेश–आपकी सलाह से तो हुआ ही होगा। अब उन्हें यहाँ लाने की फिक्र करनी है।

रतन–जालपा चली जायें और पकड़ लावें। गोपी को साथ लेती जावें। आपको इसमें कोई आपत्ति तो नहीं है दादाजी?

मुंशीजी को आपत्ति तो थी, उनका बस चलता तो इस अवसर पर दस-पाँच आदमियों को और जमा कर लेते फिर घर के आदमियों के चले जाने पर क्यों आपत्ति न होती; मगर समस्या ऐसी आ पड़ी थी कि कुछ बोल न सके।

गोपी कलकत्ते की सैर का ऐसा अच्छा अवसर पाकर क्यों न खुश होता। विश्वम्भर दिल में ऐंठकर रह गया। विधाता ने उसे छोटा न बनाया होता, तो आज उसकी यह हकतलफी न होती। गोपी ऐसे कहाँ के बड़े होशियार हैं, जहाँ जाते हैं कोई-न-कोई चीज खो आते हैं। हाँ, मुझसे बड़े हैं। इस दैवी विधान ने उसे मजबूर कर दिया।

रात को नौ बजे जालपा चलने को तैयार हुई। सास-सुसर के चरणों पर सिर झुकाकर आशीर्वाद लिया, विश्वम्भर रो रहा था, उसे गले लगाकर प्यार किया और मोटर पर बैठी। रतन स्टेशन तक पहुँचाने के लिए आयी थी।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book