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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


मुंशीजी झपटकर उठ बैठे। उनका ज्वर मानो भागकर उत्सुकता की आड़ में जा छिपा। रमेश का हाथ पकड़कर बोले–मालूम हो गया कलकत्ते में है? कोई खत आया था?

रमेश–खत नहीं था, एक पुलिस इंक्वायरी थी। मैंने कह दिया, उन पर किसी तरह का इलजाम नहीं है। तुम्हें कैसे मालूम हुआ बहूजी?

जालपा ने अपनी स्कीम बयान की। ‘प्रजा-मित्र’ कार्यालय का पत्र भी दिखाया। पत्र के साथ रुपयों की एक रसीद थी जिस पर रमा का हस्ताक्षर था।

रमेश–दस्तखत तो रमा बाबू का है, बिलकुल साफ। धोखा हो ही नहीं सकता। मान गया बहूजी तुम्हें ! वाह क्या हिक़मत निकाली है ! हम सबके कान काट लिये। किसी को न सूझी। अब जो सोचते हैं, तो मालूम होता है, कितनी आसान बात थी। किसी को जाना चाहिए जो बचा को पकड़कर घसीट लाये।

यह बातचीत हो रही थी कि रतन आ पहुँची। जालपा उसे देखते ही वहाँ से निकली और उसके गले से लिपटकर बोली–बहन कलकत्ते से पत्र आ गया। वहीं हैं।

रतन–मेरे सिर की कसम?

जालपा–हाँ, सच कहती हूँ। खत देखो न !

रतन–तो तुम आज ही चली जाओ।

जालपा–यही तो मैं भी सोच रही हूँ। तुम चलोगी?

रतन–चलने को तो मैं तैयार हूँ; लेकिन अकेला घर किस पर छोड़ूँ ! बहन, मुझे मणिभूषण पर कुछ शुबहा होने लगा है। उसकी नीयत अच्छी नहीं मालूम होती। बैंक में बीस हजार रुपये से कम न थे। सब न जाने कहाँ उड़ा दिये। कहता है, क्रिया-कर्म में खर्च हो गये। हिसाब माँगती हूं तो आँखें दिखाता है। दफ्तर की कुँजी अपने पास रक्खे हुए है। माँगती हूँ तो टाल जाता है। मेरे साथ कोई कानूनी चाल चल रहा है। डरती हूँ, मैं उधर जाऊँ, इधर वह सबकुछ ले-देकर चलता बने। बँगले के ग्राहक आ रहे हैं। मैं भी सोचती हूँ, गाँव में जाकर शान्ति से पड़ी रहूँ। बँगला बिक जायेगा, तो नकद रुपये हाथ आ जायेंगे, मैं न रहूँगी, तो शायद ये रुपये मुझे देखने को भी न मिलें। गोपी को साथ लेकर आज ही चली जाओ। रुपये का इन्तजाम मैं कर दूँगी।

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