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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


रतन मुसकरायी–यह तो मुझे मालूम है। सो मत जाना।

गोपी–पलक तक तो झपकेगी नहीं। मजाल है नींद आ जाये।

गाड़ी आ गयी। गोपी ने एक डिब्बे में घुसकर कब्जा जमाया। जालपा की आँखों में आँसू भरे हुए थे। बोली–बहन, आशीर्वाद दो कि उन्हें लेकर कुशल से लौट आऊँ।

इस समय उसका दुर्बल मन कोई आश्रय, कोई सहारा, कोई बल ढूँढ़ रहा था और आशीर्वाद और प्रार्थना के सिवा वह बल उसे और कौन प्रदान करता। यही बल और शान्ति का वह अक्षय भण्डार है जो किसी को निराश नहीं करता, जो सबकी बाँह पकड़ता है, सबका बेड़ा पार लगाता है।

इंजन ने सीटी दी। दोनों सहेलियाँ गले मिलीं जालपा गाड़ी में जा बैठी। रतन ने कहा–जाते-ही-जाते खत भेजना।

जालपा ने सिर हिलाया।

अगर मेरी जरूरत मालूम हो, तो तुरन्त लिखना। मैं सब कुछ छोड़ कर चली आऊँगी।

जालपा ने सिर हिला दिया।

‘रास्ते में रोना मत।’

जालपा हँस पड़ी। गाड़ी चल दी।

[३६]

देवीदीन ने चाय की दुकान उसी दिन से बन्द कर दी थी और दिन भर उस अदालत की खाक छानता फिरता था जिसमें डकैती का मुकदमा पेश था और रमानाथ की शहादत हो रही थी। तीन दिन रमा को शहादत बराबर होती रही और तीनों दिन देवीदीन ने न कुछ खाया और न सोया। आज भी उसने घर आते-ही-आते कुरता उतार दिया और एक पंखिया लेकर झलने लगा। फागुन लग गया था और कुछ-कुछ गर्मी शुरू हो गयी थी; पर इतनी गर्मी न थी कि पसीना बहे या पंखे की जरूरत हो। अफसर लोग तो जाड़ों के कपड़े पहने हुए थे; लेकिन देवीदीन पसीने में तर था। उसका चेहरा, जिस पर निष्कपट बुढ़ापा हँसता रहता था, खिसियाया हुआ था, मानो बेगार से लौटा हो।

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