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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


शराब का दौर शुरू हुआ, तो रमा का गुस्सा और भी तेज हुआ। लाल-लाल आँखों से देखकर बोला–चाहूँ तो अभी तुम्हारा कान पकड़कर निकाल दूँ। अभी इसी दम ! तुमने समझा क्या है !

उसका क्रोध बढ़ता देखकर रसोइया चुपके से सरक गया। रमा ने ग्लास लिया और दो-चार लुकमे खाकर बाहर सहन में टहलने लगा। यही धुन सवार थी, कैसे यहाँ से निकल जाऊँ।

एकाएक उसे ऐसा जान पड़ा कि तार के बाहर वृक्षों की आड़ में कोई है। हाँ कोई खड़ा उसकी तरफ ताक रहा है। शायद इशारे से अपनी तरफ बुला रहा है। रामनाथ का दिल धड़कने लगा। कहीं षड़यंत्रकारियों ने उसके प्राण लेने की तो नहीं ठानी है ! यह शंका उसे सदैव बनी रहती थी। इसी खयाल से वह रात को बँगले से बाहर बहुत कम निकलता था। आत्मरक्षा के भाव ने उसे अन्दर चले जाने की प्रेरणा की। उसी वक्त एक मोटर सड़क पर निकली। उसके प्रकाश में रमा ने देखा, वह अँधेरी छाया स्त्री की है। उसकी साड़ी साफ़ नजर आ रही थी। फिर उसे ऐसा मालूम हुआ कि वह स्त्री उसकी ओर आ रही है। उसे फिर शंका हुई, कोई मर्द यह वेष बदलकर मेरे साथ छल तो नहीं कर रहा है। वह ज्यों-ज्यों पीछे हटता गया, वह छाया उसकी ओर बढ़ती गयी, यहाँ तक की तार के पास आकर उसने कोई चीज रमा की तरफ फेंकी। रमा चीख मारकर पीछे हट गया; मगर वह केवल एक लिफाफा था। उसे कुछ तस्कीन हुई। उसने फिर जो सामने देखा, तो वह छाया अन्धकार में विलीन हो गयी थी।

रमा ने लपक कर वह लिफ़ाफा उठा लिया। भय भी था और कुतूहल भी। भय कम था, कुतूहल अधिक। लिफाफे को हाथ में लेकर देखने लगा। सिरनामा देखते ही उसके हृदय में फुरहरियाँ-सी उड़ने लगीं। लिखावट जालपा की थी। उसने फ़ौरन लिफाफा खोला। जालपा की ही लिखावट थी। उसने एक ही साँस में पत्र पढ़ डाला और तब एक लम्बी साँस ली। उसी साँस के साथ चिन्ता का वह भीषण भार जिसने आज छः महीने से उसकी आत्मा को दबाकर रक्खा था, वह सारी मनोव्यथा जो उसका जीवन-रक्त चूस रही थी, वह सारी दुर्बलता, लज्जा, ग्लानि मानो उड़ गयी, छूमंतर हो गयी। इतनी स्फूर्ति, इतना गर्व, इतना आत्मविश्वास उसे कभी न हुआ था। पहली सनक यह सवार हुई, अभी चलकर दारोगा से कह दूँ, मुझे इस मुकदमें से कोई सरोकार नहीं है; लेकिन फिर खयाल आया, बयान तो अब हो ही चुका है, जितना अपयश मिलना था, मिल ही चुका है, अब उसके फल से क्यों हाथ धोऊँ। मगर इन सबों ने मुझे कैसा चकमा दिया है ! और अभी तक मुगालते में डाले हुए हैं।

सब के सब मेरी दोस्ती का दम भरते हैं; मगर अभी तक असली बात मुझसे छिपाये हुए हैं। अब भी इन्हें मुझ पर विश्वास नहीं। अभी इसी बात पर अपना बयान बदल दूँ, तो आटे-दाल का भाव मालूम हो। यही न होगा, मुझे कोई जगह न मिलेगी। बला से इन लोगों के मनसूबे तो खाक में मिल जायेंगे। इस दगाबाजी की सजा तो मिल जायेगी। और यह कुछ न सही, इतनी बड़ी बदमानी से तो बच जाऊँगा। यह सब शरारत जरूर करेंगे; लेकिन झूठा इलजाम लगाने के सिवा और कर ही क्या सकते हैं। जब मेरा यहाँ रहना साबित ही नहीं, तो मुझपर दोष ही क्या लग सकता है। सबों के मुख में कालिख लग जायेगी। मुँह तो दिखाया न जायेगा, मुकदमा क्या चलायेंगे।

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