उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
फिर सोचने लगा। जालपा यहाँ कैसे आयी? अकेले ही आयी है या और कोई साथ है? जालिम ने बुड्ढे से एक मिनट भी बात न करने दिया। जालपा पूछेगी तो जरूर, कि क्यों भागे थे। साफ-साफ कह दूँगा, उस समय और कर ही क्या सकता था। पर इन थोड़े दिनों के कष्ट ने जीवन का प्रश्न तो हल कर दिया। अब आनन्द से जिन्दगी कटेगी। कोशिश करके उसी तरफ तबादला करवा लूँगा। यह सोचत-सोचते रमा को कुछ खयाल आया कि जालपा भी यहाँ मेरे साथ रहे, तो क्या हरज है। बाहर वालों से मिलने की रोक-टोक है। जालपा के लिए क्या रुकावट हो सकती है। लेकिन इस वक्त इस प्रश्न को छेड़ना उचित नहीं। कल इसे तय करूँगा। देवीदीन भी विचित्र जीव है। पहले तो कई बार आया; पर आज उसने भी सन्नाटा खींच लिया। कम-से-कम इतना तो हो सकता था कि आकर पहरेवाले कांस्टेबल से जालपा के आने की खबर मुझे देता। फिर मैं देखता कि कौन जालपा को नहीं आने देता। पहले इस तरह की कैद जरूरी थी; पर अब तो मेरी परीक्षा पूरी हो चुकी। शायद सब लोग खुशी से राजी हो जायँगे।
रसोइया थाली लाया। मांस एक तरह का था। रमा थाली देखते ही झल्ला गया। इन दिनों रुचिकर भोजन देखकर ही उसे भूख लगती थी। जब तक चार-पाँच प्रकार का मांस न हो, चटनी-अचार न हो, उसकी तृप्ति न होती थी।
बिगड़कर बोला–क्या खाऊँ तुम्हारा सिर? थाली उठा ले जाओ।
रसोइये ने डरते-डरते कहा–हुजूर, इतनी जल्द और चीजें कैसे बनाता। अभी कुल दो घण्टे तो आये हुए हैं।
‘दो घण्टे तुम्हारे लिए थोड़े होते हैं !’
‘अब हुजूर से क्या कहूँ।’
‘मत बको।’
‘हुजूर...’
‘मत बको ! डैम !’
रसोइये ने फिर कुछ न कहा। बोतल लाया, बर्फ तोड़कर ग्लास में डाली और पीछे हटकर खड़ा हो गया।
रमा को इतना क्रोध आ रहा था कि रसोइये को नोच खाये। उसका मिजाज इन दिनों बहुत तेज हो गया था।
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