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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


सहसा पहचान गया और झपटकर उसका हाथ पकड़ता हुआ बोला–तुमने तो भैया खूब भेष बनाया है? कपड़े क्या हुए?

रमा–तार से निकल रहा था। सब उसके काँटों में उलझकर फट गये।

देवी–राम-राम ! देह में तो काँटे नहीं चुभे?
 
रमा–कुछ नहीं, दो-एक खरोंच लग गये। मैं बहुत बचाकर निकला।

देवी–बहू की चिट्ठी मिल गयी न?
 
रमा–हाँ, उसी वक्त मिल गयी थी। क्या वह भी तुम्हारे साथ थीं?

देवी–वह मेरे साथ नहीं थी, मैं उनके साथ था। जब से तुम्हें मोटर पर आते देखा, तभी से जाने-जाने रट लगाये हुए थीं।

रमा–तुमने कोई खत लिखा था?

देवी–मैंने कोई खत-पत्तर नहीं लिखा भैया। जब वह आयीं तो मुझे आप ही अचम्भा हुआ कि बिना जाने-बूझे कैसे आ गयीं। पीछे से उन्होंने बताया। वह शतरंज वाला नकसा उन्हीं ने पराग से भेजा था और इनाम भी वहीं से आया था।

रमा की आँखें फैल गयीं। जालपा की चतुराई ने उसे विस्मय में डाल दिया। इसके साथ ही पराजय के भाव ने उसे कुछ खिन्न कर दिया। यहाँ भी उसकी हार हुई ! इस बुरी तरह !

बुढ़िया ऊपर गयी हुई थी। देवीदीन ने जीने के पास जाकर कहा–अरे क्या करती है? बहू से कह दे, एक आदमी उनसे मिलने आया है।

यह कहकर देवीदीन ने फिर रमा का हाथ पकड़ लिया और बोला–चलो, अब सरकार में तुम्हारी पेशी होगी। बहुत भागे थे। बिना वारंट के पकड़े गये। इतनी आसानी से पुलिस भी न पकड़ सकती !

रमा का मनोल्लास द्रवित हो गया था। लज्जा से गड़ा जाता था। जालपा के प्रश्नों का उसके पास क्या जवाब था। जिस भय से वह भागा था, उसने अन्त में उसका पीछा करके उसे परास्त ही कर दिया। वह जालपा के सामने सीधी आँखें भी तो न कर सकता था। उसने हाथ छुड़ा लिया और ज़ीने के पास ठिठक गया। देवीदीन ने पूछा–क्यों रुक गये?

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