उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
रमा ने सिर खुजलाते हुए कहा–चलो, मैं आता हूँ।
बुढ़िया ने ऊपर ही से कहा–पूछो, कौन आदमी है, कहाँ से आया है?
देवीदीन ने विनोद किया–कहता है, मैं जो कुछ कहूँगा, बहू से ही कहूँगा।
‘कोई चिट्ठी लाया है?’
‘नहीं !’
सन्नाटा हो गया। देवीदीन ने एक क्षण के बाद पूछा–कह दूँ, लौट जाये?
जालपा जीने पर आकर बोली–कौन आदमी है, पूछती तो हूँ !
‘कहता है, बड़ी दूर से आया हूँ !’
‘है कहाँ?’
‘यह क्या खड़ा है !’
‘अच्छा बुला लो !’
रमा चादर ओढ़े, कुछ झिझकता, कुछ झेंपता, कुछ डरता, जीने पर चढ़ा। जालपा ने उसे देखते ही पहचान लिया। तुरन्त दो कदम पीछे हट गयी। देवीदीन वहाँ न होता तो वह दो कदम और आगे बढ़ी होती।
उसकी आँखों में कभी इतना नशा था, अंगो में कभी इतनी चपलता न थी, कपोल कभी इतने न दमके थे, हृदय में कभी इतना मृदु कम्पन न हुआ था। आज उसकी तपस्या सफल हुई !
[३९]
वियोगियों के मिलन की रात बटोहियों के पड़ाव की रात है, जो बातों में कट जाती है। रमा और जालपा, दोनों ही को अपनी छः महीने की कथा कहनी थी। रमा ने अपना गौरव बढ़ाने के लिए अपने कष्टों को खूब बढ़ा-चढ़ाकर बयान किया। जालपा ने अपनी कथा में कष्टों की चर्चा तक न आने दी। वह डरती थी इन्हें दुःख होगा; लेकिन रमा को उसे रुलाने में विशेष आनन्द आ रहा था। वह क्यों भागा, किसलिए भागा, कैसे भागा यह सारी गाथा उसने करुण शब्दों में कही और जालपा ने सिसक-सिसककर सुनी। वह अपनी बातों से उसे प्रभावित करना चाहता था। अब तक सभी बातों में उसे परास्त होना पड़ा था। जो बात उसे असूझ मालूम हुई, उसे जालपा ने चुटकियों में पूरा कर दिखाया। शतरंजवाली बात को वह खूब नमक-मर्च लगाकर बयान कर सकता था; लेकिन वहाँ भी जालपा ने नीचा दिखाया। फिर उसकी कीर्ति लालसा को इसके सिवा और क्या उपाय था कि अपने कष्टों की राई को पर्वत बनाकर दिखाये।
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