उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
‘बयान तो बदलना ही पड़ेगा।’
‘आखिर कैसे?’
‘मुश्किल क्या है। जब तुम्हें मालूम हो गया कि म्युनिसिपैलिटी तुम्हारे ऊपर कोई मुकदमा नहीं चला सकती, तो फिर किस बात का डर?’
‘डर न हो, झेंप भी तो कोई चीज है। जिस मुँह से एक बात कही, उसी मुँह से मुकर जाऊँ, यह तो मुझसे न होगा। फिर मुझे कोई अच्छी जगह मिल जायेगी। आराम से जिन्दगी बसर होगी। मुझमें गली-गली ठोकर खाने का बूता नहीं है।’
जालपा ने कोई जवाब न दिया। वह सोच रही थी, आदमी में स्वार्थ की मात्रा कितनी अधिक होती है।
रमा ने किस धृष्टता से कहा–और कुछ मेरी ही गवाही पर तो सारा फ़ैसला नहीं हुआ जाता। मैं बदल भी जाऊँ, तो पुलिस कोई दूसरा आदमी खड़ा कर देगी। अपराधियों की जान तो किसी तरह नहीं बच सकती। हाँ, मैं मुफ्त में मारा जाऊँगा।
जालपा ने त्योरी चढ़ाकर कहा–कैसी बेशर्मी की बातें करते हो जी ! क्या तुम इतने गये-बीते हो कि अपनी रोटियों के लिए दूसरों का गला काटो। मैं इसे नहीं सह सकती। मुझे मज़दूरी करना, भूखों मर जाना मंजूर है। बड़ी-से-बड़ी विपत्ति जो संसार में है, वह सिर पर ले सकती हूँ; लेकिन किसी का अनभल करके स्वर्ग का राज भी नहीं ले सकती।
रमा इस आदर्शवाद से चिढ़कर बोला–तो क्या तुम चाहती हो कि मैं यहाँ कुलीगीरी करूँ?
जालपा–नहीं, मैं यह नहीं चाहती; लेकिन अगर कुलीगीरी भी करनी पड़े, तो वह खून से तर रोटियाँ खाने से कहीं बढ़कर है।
रमा ने शान्त भाव से कहा–जालपा, तुम मुझे जितना नीच समझ रही हो, मैं उतना नीच नहीं हूँ। बुरी बात सभी को बुरी लगती है। इसका दुःख मुझे भी है कि मेरे हाथों इतने आदमियों का खून हो रहा है; लेकिन परिस्थिति ने मुझे लाचार कर दिया है। मुझमें अब ठोकरें खाने की शक्ति नहीं है। न मैं पुलिस से रार मोल ले सकता हूँ। दुनिया में सभी थोड़े ही आदर्श पर चलते हैं। मुझे क्यों उस ऊँचाई पर चढ़ाना चाहती हो, जहाँ पहुँचने की शक्ति मुझमें नहीं है।
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