उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
जालपा ने सिसककर कहा–तुमने यह सारी आफतें झेलीं, पर हमें एक पत्र तक न लिखा। क्यों लिखते, हमसे नाता ही क्या था ! मुँह देखे की प्रीति थी ! आँख ओट पहाड़ ओट !
रमा ने हसरत से कहा–यह बात नहीं थी जालपा, दिल पर जो कुछ गुज़रती थी, दिल ही जानता है; लेकिन लिखने का मुँह भी तो हो। जब मुँह छिपाकर घर से भागा, तो अपनी विपत्ति-कथा क्या लिखने बैठता। मैंने तो सोच लिया था, जब तक खूब रुपये न कमा लूँगा, एक शब्द भी न लिखूँगा।
जालपा ने आँसू भरी आँखों में व्यंग्य भरकर कहा–ठीक ही था, रुपये आदमी से ज्यादा प्यारे होते ही हैं ! हम तो रुपये के यार हैं, तुम चाहे चोरी करो, डाका मारो, जाली नोट बनाओ, झूठी गवाही दो या भीख माँगो, किसी उपाय से रुपये लाओ ! तुमने हमारे स्वभाव को कितना ठीक समझा है, कि वाह ! गोसाईं जी भी तो कह गये हैं–सवारथ लाइ करहिं सब प्रीती।
रमा ने झेंपते हुए कहा–नहीं-नहीं प्रिये, यह बात न थी। मैं यही सोचता था कि इन फटे हालों जाऊँगा कैसे। सच कहता हूँ, मुझे सबसे ज्यादा डर तुम्हीं से लगता था। सोचता था, तुम मुझे कितना कपटी, झूठा, कायर समझ रही होगी। शायद मेरे मन में यह भाव था कि रुपये कि थैली देखकर तुम्हारा हृदय कुछ तो नर्म होगा।
जालपा ने व्यथित कंठ से कहा–मैं शायद उस थैली को हाथ से छूती भी नहीं। आज मालूम हो गया, तुम मुझे कितनी नीच, कितनी स्वार्थिनी, कितनी लोभिन समझते हो ! इसमें तुम्हारा कोई दोष नहीं, सरासर मेरा दोष है। अगर मैं भली होती, तो आज यह दिन ही क्यों आता। जो पुरुष तीस-चालीस रुपये महीने का नौकर हो, उसकी स्त्री अगर दो-चार रुपये रोज ख़र्च करे, हजार-दो हजार के गहने पहनने की नीयत रक्खे, तो वह अपनी और उसकी तबाही का सामान कर रही है। अगर तुमने मुझे इतना धनलोलुप समझा, तो कोई अन्याय नहीं किया। मगर एक बार जिस आग में जल चुकी, उसमें फिर न कूदूँगी। इन महीनों में मैंने उन पापों का कुछ प्रायश्चित किया है और शेष जीवन के अन्त समय तक करूँगी। यह मैं नहीं कहती कि भोग-विलास से मेरा जी भर गया, या गहने-कपड़े से मैं ऊब गयी, या सैर-तमाशे से मुझे घृणा हो गयी। यह सब अभिलाषाएँ ज्यों-कि-त्यों हैं। अगर तुम अपने पुरुषार्थ से, अपने परिश्रम से, अपने सदुपयोग से उन्हें पूरा कर सको तो क्या कहना; लेकिन नीयत खोटी करके, आत्मा को कलुषित करके एक लाख भी लाओ, तो मैं उसे ठुकरा दूँगी। जिस वक्त मुझे मालूम हुआ कि तुम पुलिस के गवाह बन गये हो, मुझे इतना दुःख हुआ कि मैं उसी वक्त दादा को साथ लेकर तुम्हारे बँगले तक गयी; मगर उसी दिन तुम बाहर चले गये थे और आज लौटे हो। मैं इतने आदमियों का खून अपनी गर्दन पर नहीं लेना चाहती। तुम अदालत में साफ-साफ कह दो कि मैंने पुलिस के चकमे में आकर गवाही दी थी, मेरा इस मुआमले से कोई सम्बन्ध नहीं है।
रमा ने चिन्तित होकर कहा–जब से तुम्हारा खत मिला, तभी से मैं इस प्रश्न पर विचार कर रहा हूँ; लेकिन समझ में नहीं आता क्या करूँ। एक बात कहकर मुकर जाने का साहस मुझमें नहीं है।
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