उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
[४०]
रमा मुँह-अँधेरे अपने बँगले जा पहुँचा। किसी को कानोंकान खबर न हुई।
नाश्ता करके रमा ने ख़त साफ किया, कपड़े पहने और दारोगा के पास जा पहुँचा। त्योरियाँ चढ़ी हुई थीं।
दारोगा ने पूछा–खैरियत तो है, नौकरों ने कोई शरारत तो नहीं की?
रमा ने खड़े-खड़े कहा–नौकरों ने नहीं आपने शरारत की है, आपके मातहतों, अफ़सरों और सबने मिलकर मुझे उल्लू बनाया है।
दारोग़ा ने कुछ घबड़ाकर पूछा–आखिर बात क्या है, कहिए तो?
रमा–बात यही है कि मैं इस मुआमले में अब कोई शहादत न दूँगा। उससे मेरा ताल्लुक नहीं है। आप लोगों ने मेरे साथ चाल चली और वारण्ट की धमकी देकर मुझे शहादत देने पर मजबूर किया। अब मुझे मालूम हो गया कि मेरे ऊपर कोई इल्जाम नहीं। आप लोगों का चकमा था। पुलिस की तरफ़ से शहादत नहीं देना चाहता, मैं आज जज साहब से साफ़ कह दूँगा। बेगुनाहों का खून अपनी गर्दन पर न लूँगा।
दारोगा ने तेज होकर कहा–आपने खुद ग़बन तस्लीम किया था।
रमा–मीजान की गलती थी। ग़बन न था। म्युनिसिपैलिटी ने मुझ पर कोई मुकदमा नहीं चलाया।
‘यह आपको कैसे मालूम हुआ?’
‘इससे से आपको कोई बहस नहीं। मैं शहादत न दूँगा। साफ-साफ कह दूँगा, पुलिस ने मुझे धोखा देकर शहादत दिलवायी है। जिन तारीखों का वह वाकया है, उन तारीखों में मैं इलाहाबाद में था। म्युनिसिपल ऑफिस में मेरी हाजिरी मौजूद है।’
दारोगा ने इस आपत्ति को हँसी में उड़ाने की चेष्टा करके कहा–अच्छा साहब, पुलिस ने धोखा ही दिया; लेकिन उसका खातिरख्वाह इनाम देने को भी तो हाजि़र है। कोई अच्छी जगह मिल जायेगी, मोटर पर बैठे हुए सैर करोगे। खू़फिया पुलिस में कोई जगह मिल जायेगी, तो चैन-ही-चैन है। सरकार की नज़रों में इज्जत और रसूख़ कितना बढ़ गया, यों मारे-मारे फिरते। शायद किसी दफ्तर में क्लर्की मिल जाती, वह भी बड़ी मुश्किल से। यहाँ तो बैठे बिठाये तरक्की का दरवाजा खुल गया। अच्छी तरह कारगुजा़री होगी, तो एक दिन राय बहादुर मुंशी रमानाथ डिप्टी सुपरिटेंडेंट हो जाओगे। तुम्हें हमारा एहसान मानना चाहिए और आप उलटे खफ़ा होते हैं।
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