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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


जालपा–यह सब सोच चुकी हूँ, और ज्यादा नहीं सोचना चाहती। मैं जाकर अपने कपड़े बाँधती हूँ और इसी गाड़ी से जाऊँगी।

यह कहकर जालपा ऊपर चली गयी। रमा भी पीछे-पीछे यह सोचता हुआ चला, इसे कैसे शान्त करूँ।

जालपा अपने कमरे में जाकर बिस्तर लपेटने लगी कि रमा ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोला–तुम्हें मेरी कसम जो इस वक्त जाने का नाम लो !

जालपा ने त्योरी चढ़ाकर कहा–तुम्हारी कसम कि हमें कुछ परवा नहीं है।

उसने अपना हाथ छुड़ा लिया और फिर बिछावन लपेटने लगी। रमा खिसियाना-सा होकर एक किनारे खड़ा हो गया। जालपा ने बिस्तरबन्द से बिस्तरे को बाँधा और फिर अपने सन्दूक को साफ़ करने लगी। मगर अब उसमें वह पहले-सी तत्परता न थी, बार बार सन्दूक बन्द करती और खोलती। वर्षा बन्द हो चुकी थी, केवल छत पर रुका हुआ पानी टपक रहा था।

आखि़र वह उसी बिस्तर के बण्डल पर बैठ गयी और बोली–तुमने मुझे कसम क्यों दिलायी?

रमा के हृदय में आशा की गुदगुदी हुई। बोला–सिवा इसके मेरे पास तुम्हें रोकने का और क्या साधन था?

जालपा–क्या तुम चाहते हो कि मैं यहीं घुट-छुटकर मर जाऊँ?

रमानाथ–तुम ऐसे मनहूस शब्द क्यों मुँह से निकालती हो? मैं तो चलने को तैयार हूँ, न मानोगी तो पहुँचाना ही पड़ेगा। जाओ, मेरा ईश्वर मालिक है; मगर कम-से-कम बाबूजी और अम्मा से पूछ लो।

बुझती हुई आग में तेल पड़ गया। जालपा तड़पकर बोली–वह मेरे कौन होते हैं, जो उनसे पूछूँ?

रमानाथ–कोई नहीं होते?

जालपा–कोई नहीं ! अगर कोई होते, तो मुझे यों न छोड़ देते। रुपये रखते हुए कोई अपने प्रियजनों का कष्ट नहीं देख सकता। ये लोग क्या मेरे आँसू न पोंछ सकते थे? मैं दिन-के-दिन यहाँ पड़ी रहती हूँ, कोई झूठों भी पूछता है आती है? मुहल्ले की स्त्रियाँ मिलने आती हैं, कैसे मिलूँ? यह सूरत तो मुझसे नहीं दिखायी जाती। न कहीं आना न जाना, न किसी से बात न चीत, ऐसे कोई कितने दिन रह सकता है? मुझे इन लोगों से अब कोई आशा नहीं रही। आखिर दो लड़के और भी तो हैं, उनके लिए कुछ जोड़ेंगे कि तुम्हीं को दे दें !

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