उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
एक दिन वह शाम तक नौकरी की तलाश में मारा-मारा फिरता रहा। शतरंज की बदौलत उसका कितने ही अच्छे-अच्छे आदमियों से परिचय था; लेकिन वह संकोच और डर के कारण किसी से अपनी स्थिति प्रकट न कर सकता था। यह भी जानता था कि यह मान-सम्मान उसी वक्त तक है, जब तक किसी के सामने मदद के लिए हाथ नहीं फैलाता। यह आन टूटी फिर कोई बात भी न पूछेगा। कोई ऐसा भलामानस न दीखता था, जो सब कुछ बिना कहे ही जान जाये, और उसे कोई अच्छी सी जगह दिला दे। आज उसका चित्त बहुत खिन्न था। मित्रों पर ऐसा क्रोध आ रहा था कि एक-एक को फटकारे और आयें तो द्वार से दुत्कार दे। अब किसी ने शतरंज खेलने को बुलाया, तो ऐसी फटकार सुनाऊँगा कि बच्चा याद करें; मगर वह ज़रा गौर करता तो उसे मालूम हो जाता कि इस विषय में मित्रों का उतना दोष न था, जितना खुद उसका। कोई ऐसा मित्र न था, जिससे उसने बढ़-बढ़कर बातें न की हों। यह उसकी आदत थी। घर की असली दशा को वह सदैव बदनामी की तरह छिपाता रहा। और उसी का फल था कि इतने मित्रों के होते हुए भी बेकार था। वह किसी से अपनी मनोव्यथा न कह सकता था और मनोव्यथा साँस की भाँति अन्दर घुटकर असह्य हो जाती है। घर में आकर मुँह लटकाये हुए बैठ गया।
जागेश्वरी ने पानी लाकर रख दिया और पूछा–आज तुम दिन भर कहाँ रहे? लो हाथ-मुँह धो डालो।
रमा ने लोटा उठाया ही था कि जालपा ने आकर उग्र भाव से कहा–मुझे मेरे घर पहुँचा दो, इसी वक्त !
रमा ने लोटा रख दिया और उसकी ओर इस तरह ताकने लगा, मानों उसकी बात समझ में न आयी हो।
जागेश्वरी बोली–भला इस तरह कहीं बहू-बेटियाँ बिदा होती हैं। कैसी बात करती हो बहू?
जालपा–मैं उन बहू बेटियों में नहीं हूँ। मेरा जिस वक्त जी चाहेगा जाऊँगी, मुझे किसी का डर नहीं है। जब यहाँ कोई मेरी बात नहीं पूछता, तो मैं भी किसी को अपना नहीं समझती। सारे दिन अनाथों की तरह पड़ी रहती हूँ। कोई झाँकता तक नहीं। मैं चिड़ियाँ नहीं हूँ, जिसका पिंजड़ा दाना-पानी रखकर बन्द कर दिया जाय। मैं भी आदमी हूँ। अब इस घर में मैं क्षण-भर न रुकूँगी। अगर मुझे कोई कुछ भेजने न जायेगा, तो अकेली ही चली जाऊँगी। राह में कोई भेड़िया नहीं बैठा है, जो मुझे उठा ले जायेगा और उठा भी ले जाये, तो क्या ग़म। यहाँ कौन सा सुख भोग रही हूँ।
रमा ने सावधान होकर कहा–आखिर कुछ मालूम भी हो तो, क्या बात हुई?
जालपा–बात कुछ नहीं हुई, अपना जी है। यहाँ नहीं रहना चाहती।
रमानाथ–भला इस तरह जाओगी तो तुम्हारे घरवाले क्या कहेंगे, कुछ यह भी तो सोचो !
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