उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
ज़ोहरा वेश्या थी, उसको अच्छे-बुरे सभी तरह के आदमियों से साबिका पड़ चुका था। उसकी आँखों में आदमियों की परख थी। उसको इस परदेशी युवक में और अन्य व्यक्तियों में एक बड़ा फर्क दिखायी देता था। पहले वह यहाँ भी पैसे की गुलाम बनकर आयी थी; लेकिन दो-चार दिन के बाद ही उसका मन रमा की ओर आकर्षित होने लगा। प्रौढ़ा स्त्रियाँ अनुराग की अवहेलना नहीं कर सकतीं। रमा में और सब दोष हों, पर अनुराग था। इस जीवन में ज़ोहरा को यह पहला आदमी ऐसा मिला था जिसने उसके सामने अपना हृदय खोलकर रख दिया, जिसने उससे कोई परदा न रक्खा। ऐसे अनुराग रत्न को वह खोना न चाहती थी। उसकी बात सुनकर उसे ज़रा भी ईर्ष्या न हुई; बल्कि उसके मन में एक स्वार्थमय सहानुभूति उत्पन्न हुई। इस युवक को, जो प्रेम के विषय में इतना सरल था, वह प्रसन्न करके हमेशा के लिए अपना गुलाम बना सकती थी। उसे जालपा से कोई शंका न थी। जालपा कितनी ही रूपवती क्यों न हो, ज़ोहरा अपने कला-कौशल से, अपने हाव-भाव से उसका रंग फीका कर सकती थी। इसके पहले उसने कई महान् सुन्दरी खत्रानियों को रुलाकर छोड़ दिया था। फिर जालपा किस गिनती में थी।
ज़ोहरा ने उसका हौसला बढ़ाते हुए कहा–तो इसके लिए तुम क्यों इतना रंज करते हो प्यारे ! ज़ोहरा तुम्हारे लिए सब कुछ करने को तैयार है। मैं कल ही जालपा का पता लगाऊँगी और वह यहाँ रहना चाहेगी, तो उसके आराम के सब सामान कर दूँगी। जाना चाहेगी, तो रेल पर भेज दूँगी।
रमा ने बड़ी दीनता से कहा–एक बार मैं उससे मिल लेता, तो मेरे दिल का बोझ उतर जाता।
ज़ोहरा चिन्तित होकर बोली–यह तो मुश्किल है प्यारे। तुम्हें यहाँ से कौन जाने देगा?
रमा–कोई तदबीर बताओ।
ज़ोहरा–मैं उसे पार्क में खड़ी कर आऊँगी। तुम डिप्टी साहब के साथ वहाँ जाना और किसी बहाने से उससे मिल लेना। इसके सिवा तो और मुझे कुछ नहीं सूझता।
रमा अभी कुछ कहना ही चाहता था कि दारोग़ा जी ने पुकारा–मुझे भी खिलवत में आने की इजाजत है?
दोनों सँभल बैठे और द्वार खोल दिया। दारोग़ाजी मुस्कुराते हुए आये और ज़ोहरा की बगल में बैठकर बोले–यहाँ आज सन्नाटा कैसा ! क्या आज खजाना खाली है? ज़ोहरा, आज अपने दस्ते-हिनाई से एक जाम भर कर दो। रमानाथ, भाईजान, नाराज़ न होना।
रमा ने कुछ तुर्श होकर कहा–इस वक्त तो रहने दीजिए, दारोग़ाजी। आप तो पिये हुए नजर आते हैं।
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