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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


रमा–मैं उसकी जान लेकर छोड़ता। मैं उस वक्त अपने आपे में न था। न जाने मुझमें उस वक्त कहाँ से इतनी ताकत आ गयी थी।

ज़ोहरा–और जो वह कल से मुझे न आने दे तो?

रमा–कौन, अगर इस बीच में उसने ज़रा भी भाँजी मारी, तो गोली मार दूँगा। वह देखो, ताक़ पर पिस्तौल रक्खा हुआ है। तुम अब मेरी हो ज़ोहरा,। मैंने अपना सबकुछ तुम्हारे कदमों पर निसार कर दिया और तुम्हारा सबकुछ पाकर ही मैं सन्तुष्ट हो सकता हूँ। तुम मेरी हो, मैं तुम्हारा हूँ। किसी तीसरी औरत या मर्द को हमारे बीच में आने का मजाल नहीं है–जब तक मैं मर न जाऊँ।

ज़ोहरा की आँखें चमक रही थीं। उसने रमा की गरदन में हाथ डालकर कहा–ऐसी बात मुँह से न निकालो, प्यारे !

[४८]

सारे दिन रमा उद्वेग के जंगलों में भटकता रहा। कभी निराशा की अन्धकारमय घाटियाँ सामने आ जातीं, कभी आशा की लहराती हुई हरियाली। ज़ोहरा गयी भी होगी? यहाँ से तो बड़े लंबे-चौड़े वादे करके गयी थी। उसे क्या गरज़ है? आकर कह देगी, मुलाका़त ही नहीं हुई। कहीं धोखा तो नहीं देगी? जाकर डिप्टी साहब से सारी कथा कह सुनाये। बेचारी जालपा पर बैठे-बिठाये आफत आ जाय। क्या ज़ोहरा इतनी नीच प्रकृति की हो सकती है? कभी नहीं, अगर ज़ोहरा इतनी बेवफा, इतनी दगाबाज है, तो यह दुनिया रहने के लायक ही नहीं। जितनी जल्द आदमी मुँह में कालिख लगाकर डूब मरे, उतना ही अच्छा। नहीं, ज़ोहरा मुझसे दगा न करेगी। उसे वह दिन याद आये, जब उसके दफ्तर से आते ही जालपा लपककर उसकी जे़ब टटोलती थी और रुपये निकाल लेती थी।

वही जालपा आज इतनी सत्यवादिनी हो गयी। तब वह प्यार करने की वस्तु थी। अब वह उपासना की वस्तु है। जालपा ! मैं तुम्हारे योग्य नहीं हूँ। जिस ऊँचाई पर तुम मुझे ले जाना चाहती हो, वहाँ तक पहुँचने की मुझमें शक्ति नहीं है। वहाँ पहुँचकर शायद चक्कर खाकर गिर पड़ूँ। मैं अब भी तुम्हारे चरणों पर सिर झुकाता हूँ। मैं जानता हूँ, तुमने मुझे अपने हृदय से निकाल दिया है, तुम मुझसे विरक्त हो गयी हो, तुम्हें अब मेरे डूबने का दुःख है, न तैरने की खुशी; पर अब भी शायद मेरे मरने या किसी घोर संकट में फँस जाने की खबर पाकर तुम्हारी आँखों से आँसू निकल आयेंगे। शायद तुम मेरी लाश देखने आओ। हा ! प्राण ही क्यों नहीं निकल जाते कि तुम्हारी निगाह में इतना नीच तो न रहूँ।

रमा को अब अपनी उस गलती पर घोर पश्चाताप हो रहा था, जो उसने जालपा की बात न मानकर की थी। अगर उसने उसके आदेशानुसार जज के इजलास में अपना बयान दिया होता, धमकियों में न आता, हिम्मत मजबूत रखता, तो उसकी यह दशा क्यों होती ! उसे विश्वास था, जालपा के साथ वह सारी कठिनाइयाँ झेल ले जाता। उसकी श्रद्धा और प्रेम का कवच पहनकर वह अजेय हो जाता। अगर उसे फाँसी भी हो जाती, तो वह हँसते-खेलते उस पर चढ़ जाता।

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