उपन्यास >> ग़बन (उपन्यास) ग़बन (उपन्यास)प्रेमचन्द
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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव
रमा–ज़ोहरा रात आयी नहीं। ज़रा किसी को भेजकर पता तो लगवाइए बात क्या है। कहीं नाराज तो नहीं हो गयी?
दारोगा ने बेदिली से कहा–उसे गरज होगा खुद आयेगी। किसी को भेजने की ज़रूरत नहीं है।
रमा ने फिर आग्रह न किया। समझ गया, यह हज़रत रात बिगड़ गये। चुपके से चला आया। अब किससे कहे? सबसे यह बात कहना लज्जास्पद मालूम होता है। लोग समझेंगे, यह महाशय एक ही रसिया निकले। दारोगा से तो थोड़ी-सी घनिष्ठता हो गयी थी।
एक हफ्ते तक उसे ज़ोहरा के दर्शन न हुए। अब उसके आने की कोई आशा न थी। रमा ने सोचा, आखिर बेवफा निकली। उससे कुछ आशा करना मेरी भूल थी। या मुमकिन है, पुलिस-अधिकारियों ने उसके आने की मनाही कर दी हो। कम-से-कम मुझे एक पत्र तो लिख सकती थी। मुझे कितना धोखा हुआ। व्यर्थ उससे अपने दिल की बात कही। कहीं इन लोगों से कह दे, तो उलटी आँतें गले पड़ जायँ; मगर ज़ोहरा बेवफाई नहीं कर सकती। रमा की अन्तरात्मा इसकी गवाही देती थी। इस बात को किसी तरह स्वीकार न करती थी। शुरू के दस-पाँच दिन तो जरूर ज़ोहरा ने उसे लुब्ध करने की चेष्टा की थी। फिर अनायास ही उसके व्यवहार में परिवर्तन होने लगा था। वह क्यों बार-बार सजल-नेत्र होकर कहती थी, देखो बाबूजी, मुझे भूल न जाना। उसकी वह हसरत भरी बातें याद आ-आकर कपट की शंका को दिल से निकाल देतीं। जरूर कोई-न-कोई नयी बात हो गयी है। वह अकसर एकान्त में बैठकर ज़ोहरा की याद करके बच्चों की तरह रोता। शराब से उसे घृणा हो गयी। दारोगाजी आते, इन्स्पेक्टर साहब आते, पर रमा को उनके साथ दस-पाँच मिनट बैठना भी अखरता। वह चाहता था, मुझे कोई न छेड़े, कोई न बोले। रसोइया खाने को बुलाने आता तो उसे घुड़क देता। कहीं घूमने या सैर करने की उसकी इच्छा ही न होती। यहाँ कोई उसका हम दर्द न था, कोई उसका मित्र न था, एकान्त में मन-मारे बैठे रहने में ही उसके चित्त को शान्ति होती थी। उसकी स्मृतियों में भी अब कोई आनन्द न था। नहीं, वह स्मृतियाँ भी मानो उसके हृदय से मिट गयी थीं। इस प्रकार का विराग उसके दिल पर छाया रहता था।
सातवाँ दिन था। आठ बज गये थे। आज एक बहुत अच्छा फ़िल्म होने वाला था। एक प्रेम-कथा थी। दारोग़ाजी ने आकर रमा से कहा, तो वह चलने को तैयार हो गया। कपड़े पहन रहा था कि ज़ोहरा आ पहुँची। रमा ने उसकी तरफ एक बार आँख उठाकर देखा, फिर आईने में अपने बाल सँवारने लगा। न कुछ बोला, न कुछ कहा। हाँ, ज़ोहरा का वह सादा, आभरणहीन स्वरूप देखकर उसे कुछ आश्चर्य अवश्य हुआ। वह केवल एक सफेद साड़ी पहने हुए थी। आभूषण का एक तार भी उसकी देह पर न था। ओठ मुरझाये हुए और चेहरे पर क्रीडामय चंचलता की जगह तेजमय गम्भीरता झलक रही थी।
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