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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


रमा व्यग्र होकर पानी में कूद पड़ा और ज़ोर-ज़ोर से पुकारने लगा–ज़ोहरा ! ज़ोहरा ! मैं आता हूँ।

मगर ज़ोहरा में अब लहरों से लड़ने की शक्ति न थी। वह वेग से लाश के साथ ही बही जा रही थी। उसके हाथ-पाँव हिलना बन्द हो गये थे।

एकाएक एक ऐसा रेला आया कि दोनों ही उसमें समा गयीं। एक मिनट के बाद ज़ोहरा के काले बाल नज़र आये। केवल एक क्षण तक ! यही अन्तिम झलक थी। फिर वह नजर न आयी।

रमा कोई सौ गज़ तक जोरों के साथ हाथ-पाँव मारता हुआ गया; लेकिन इतनी ही दूर में लहरों के वेग के कारण उसका दम फूल गया। अब आगे जाय कहाँ? ज़ोहरा का तो कहीं पता भी न था। वही आखिरी झलक आँखों के सामने थी।

किनारे पर जालपा खड़ी हाय-हाय कर रही थी। यहाँ तक कि वह भी पानी में कूद पड़ी। रमा अब आगे न बढ़ सका। एक शक्ति आगे खींचती थी, एक पीछे। आगे की शक्ति में अनुराग था, निराशा थी, बलिदान था। पीछे की शक्ति में कर्तव्य था, स्नेह था, बन्धन था। बन्धन ने रोक लिया। वह लौट पड़ा।

कई मिनट तक जालपा और रमा घुटनों तक पानी में खड़े उसी तरफ़ ताकते रहे। रमा की ज़बान आत्म-धिक्कार ने बन्द कर रक्खी थी, जालपा की शोक और लज्जा ने।

आखिर रमा ने कहा–पानी में क्यों खड़ी हो? सर्दी हो जायेगी।

जालपा पानी से निकलकर तट पर खड़ी हो गयी; पर मुँह से कुछ न बोली–मृत्यु के इस आघात ने उसे पराभूत कर दिया था। जीवन कितना अस्थिर है, यह घटना आज दूसरी बार उसकी आँखों के सामने चरितार्थ हुई थी। रतन के मरने की पहले से आशंका थी। मालूम था कि वह थोड़े ही दिनों की मेहमान है; मगर ज़ोहरा की मौत तो वज्राघात के समान थी। अभी आध घड़ी पहले तीनों आदमी प्रसन्नचित्त, जल क्रीड़ा देखने चले थे। किसे शंका थी कि मृत्यु की ऐसी भीषण क्रीड़ा उनको देखनी पड़ेगी।

इन चार सालों में ज़ोहरा ने अपनी सेवा, आत्मत्याग और सरल स्वभाव से सभी को मुग्ध कर लिया था। अपने अतीत को मिटाने के लिए, अपने पिछले दागों को धो डालने के लिए, उसके पास इसके सिवा और क्या साधन था। उसकी सारी कामनाएँ, सारी वासनाएँ सेवा में लीन हो गयीं। कलकत्ते में वह विलास और मनोरंजन की वस्तु थी। शायद कोई भला आदमी उसे अपने घर में न घुसने देता। यहाँ सभी उसके साथ घर के प्राणी का-सा व्यवहार करते थे। दयानाथ और जागेश्वरी को यह कहकर शान्त कर दिया गया था कि वह देवीदीन की विधवा बहू है। ज़ोहरा ने कलकत्ते में जालपा से केवल उसके साथ रहने की भिक्षा माँगी थी। अपने जीवन से उसे घृणा हो गयी थी। जालपा की विश्वासमय उदारता ने उसे आत्मशुद्धि के पथ पर डाल दिया। रतन का पवित्र, निष्काम जीवन उसे प्रोत्साहित किया करता था।

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