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ग़बन (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :544
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8444
आईएसबीएन :978-1-61301-157

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ग़बन का मूल विषय है महिलाओं का पति के जीवन पर प्रभाव


ज़ोहरा ने कहा–मैं जाती हूँ।

रमा ने लजाते हुए कहा–जाने को तो मैं तैयार हूँ; लेकिन वहाँ तक पहुँच भी सकूँगा, इसमें सन्देह है। कितना तोड़ है !

ज़ोहरा ने एक कदम पानी में रखकर कहा–नहीं, मैं अभी निकाल लाती हूँ।

वह कमर तक पानी में चली गयी। रमा ने सशंक होकर कहा–क्यों नाहक जान देने जाती हो। वहाँ शायद एक गड्ढा है। मैं तो जा ही रहा था।

ज़ोहारा ने हाथों से मना करते हुए कहा–नहीं-नहीं, तुम्हें मेरी कसम, तुम न आना। मैं अभी लिये आती हूँ। मुझे तैरना आता है।

जालपा ने कहा–लाश होगी और क्या !

रमा–शायद अभी जान हो।

जालपा–अच्छा, ज़ोहरा तो तैर भी लेती हैं, जभी हिम्मत हुई।

रमा ने ज़ोहरा की ओर चिन्तित आँखों से देखते हए कहा–हाँ, कुछ-कुछ जानती तो हैं। ईश्वर करे लौट आयें। मुझे अपनी कायरता पर लज्जा आ रही है।

जालपा ने बेहयाई से कहा–इसमें लज्जा की कौन बात है। मरी लाश के लिए जान जोखिम में डालने से क्या फ़ायदा? जीती होती, तो मैं खुद तुमसे कहती, जाकर निकाल लाओ।

रमा ने आत्म-धिक्कार के भाव से कहा–यहाँ से कौन जान सकता है, जान है या नहीं। सचमुच बाल-बच्चों वाला आदमी नामर्द हो जाता है। मैं खड़ा रहा और ज़ोहरा चली गयी।

सहसा एक ज़ोर की लहर आयी और लाश को फिर धारा में बहा ले गयी। ज़ोहरा लाश के पास पहुँच चुकी थी। उसे पकड़कर खींचना ही चाहती थी कि इस लहर ने उसे दूर कर दिया। ज़ोहरा खुद उसके जोर में आ गयी और प्रवाह की ओर कई हाथ बह गयी। वह फिर सँभली; पर एक दूसरी लहर ने उसे फिर ढकेल दिया।

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